क्यूं जुबां दर्द की आँखें ये अब लिखती नहीं
देखता हूँ आईनें में तो तकदीर दिखती नहीं
थक-हार के बैठ गया हैं मुसाफ़िर सुबह का
निकला था जिस राह,मंजिल पे मिलती नहीं
कब का टूट चुका हैं दिल मेरा ये आईनें का
बिखरें हैं अरमां मगर ये अब मचलती नहीं
बहोत दिनों बाद पायी फुरसत तो ये सोचा
क्यूं अपनों के साथें शामें ये अब ढलती नहीं
यकीं था इक दिन होगा शायद कुछ ऐसा ही
कहेंगें जब सब किताबें ये अब बिकती नहीं
नितेश वर्मा
देखता हूँ आईनें में तो तकदीर दिखती नहीं
थक-हार के बैठ गया हैं मुसाफ़िर सुबह का
निकला था जिस राह,मंजिल पे मिलती नहीं
कब का टूट चुका हैं दिल मेरा ये आईनें का
बिखरें हैं अरमां मगर ये अब मचलती नहीं
बहोत दिनों बाद पायी फुरसत तो ये सोचा
क्यूं अपनों के साथें शामें ये अब ढलती नहीं
यकीं था इक दिन होगा शायद कुछ ऐसा ही
कहेंगें जब सब किताबें ये अब बिकती नहीं
नितेश वर्मा
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