Monday, 1 December 2014

क्यूं जुबां दर्द की आँखें ये अब लिखती नहीं

क्यूं जुबां दर्द की आँखें ये अब लिखती नहीं
देखता हूँ आईनें में तो तकदीर दिखती नहीं

थक-हार के बैठ गया हैं मुसाफ़िर सुबह का
निकला था जिस राह,मंजिल पे मिलती नहीं

कब का टूट चुका हैं दिल मेरा ये आईनें का
बिखरें हैं अरमां मगर ये अब मचलती नहीं

बहोत दिनों बाद पायी फुरसत तो ये सोचा
क्यूं अपनों के साथें शामें ये अब ढलती नहीं

यकीं था इक दिन होगा शायद कुछ ऐसा ही
कहेंगें जब सब किताबें ये अब बिकती नहीं

नितेश वर्मा


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