साहित्य की सबसे पुरानी विधा कहानी लेखन हैं। जनजीवन में यह सबसे अधिक लोकप्रिय हैं। प्राचीन-काल में कहानी में कहानी कथा, आख्यायिका, गल्प आदि कहा जाता था। आधिनुक काल में “कहानी” ही अधिक प्रचलित हैं। साहित्य में यह अब अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान बना चुकी हैं। पहले कहानी का उद्देश्य उपदेश देना और मनोरंजन करना माना जाता था, आज इसका लक्ष्य मानव-जीवन कि विविध समस्याओं और संवेदनाओं को व्यक्त करना हैं। यही कारण हैं कि प्राचीन कथा से आधुनिक-हिन्दी कहानी बिल्कुल भिन्न हो गई हैं। उसकी आत्मा बदली है और शैली भी।
कहानी के तत्व:
मुख्यतः कहानी के छह तत्व मानें गये हैं
[1] कथावस्तु
[2] चरित्र-चित्रण
[3] संवाद
[4] देशकाल या वातावरण
[5] उद्देश्य
[6] शैली
[1] कथावस्तु :-
कथावस्तु के बिना कहानी की कल्पना ही नहीं की जा सकती। यह उसका अनिवार्य अंग है। कथावस्तु जीवन की भिन्न-भिन्न दिशाओं और क्षेत्रों से ग्रहण की जाती हैं। इसके विभिन्न स्रोत है:- पुराण, इतिहास, राजनीति, समाज इत्यादि। कहानीकार इनमें से किसी भी क्षेत्र से कथावस्तु का चुनाव करता है और उसके आधार पर कथानक की अट्टालिका खडी करता हैं। कथावस्तु में घटनाओं की अधिकता हो सकती है और एक ही घटना पर उसकी रचना भी हो सकती है। अब तो कहानी में घटना-तत्व अत्यंत सूक्ष्म होतें जा रहे है। अतएव, आज घटना की आवश्यकता पर अधिक बल नहीं दिया जाता। लेकिन, उनमें कोई-ना-कोई घटना अवश्य होगी।
[2] चरित्र-चित्रण :-
कहानी किसी व्यक्ति या किसी पात्र की होती हैं। यह पात्र ही कहानी में चरित्र कहलाता है। लेकिन इसकी संख्या कम-से-कम होनी चाहिए। तभी कहानीकार उस एक चरित्र के अंतर और बाह्य पक्षों का अधिकाधिक मनोविश्लेषण कर सकता है। मूल घटना से उसका गहरा संबंध होना चाहिए।
[3] संवाद :-
पहले संवाद कहानी का अभिन्न अंग माना जाता था, अब उसकी अनिवार्यता समाप्त हो गयी है। ऐसी अनेकानेक कहानियाँ लिखी गयीं है, या लिखी जाती हैं, जिनमें संवाद का एकदम अभाव रहता है। सारी कहानी वर्णनात्मक या मनोविश्लेषणात्मक शैली में लिख दी जाती हैं। संवाद की कहीं भी अनावश्यकता नहीं पडती। लेकिन संवाद से कहानी के पात्र सजीव और स्वाभाविक बन जाते हैं।
[4] देशकाल या वातावरण :-
कहानी देशकाल की उपज होती है, इसलिए हर देश की कहानी दूसरे देशों से भिन्न होती है। भारत में या इस देश के किसी भी भू-भाग में लिखी कहानियों का अपना वातावरण होता है, जिसकी संस्कृति, सभ्यता, रूढि, संस्कार का प्रभाव उनपर स्वभाविक रूप से पडता है। वास्तव मे।ब, देशकाल कहानी का कोई तत्व नही है। यह अपनें आप आ उपस्थित होता है। यह तो आधार है, जिसपर सारा कार्यकलाप होता हैं।
[5] उद्देश्य :-
यह कहानी का एक तत्व माना जाता है, लेकिन सच तो यह हैं कि साहित्य की किसी भी विधा की रचना निरूद्देश्य नहीं होती। हम निरूद्देश्य जीवन जीना नहीं चाहते। कहानी की रचना भी निरूद्देश्य नहीं होती। कहानीकार का कोई-ना-कोई प्रयोजन हर कहानी की रचना के पीछे रहता है। यह उद्देश्य कहानी के आवरण में छिपा रहता है; प्रकट हो जानें पर उसका कलात्मक सौंदर्य नष्ट हो जाता है।
[6]शैली :-
शैली कहानी के कलेवर को सुसज्जित करनेवाला कलात्मक आवरण होती है। इसका संबंध कहानीकार के आन्तरिक और बाह्य पक्षों से रहता है। कहानी-लेखक अपनी कहानी अनेक प्रकार से कहना चाहता है। वह उसे वर्णात्मक, संवादात्मक, आत्मकथात्मक, विवरणात्मक, पत्रात्मक किसी भी रूप में लिख सकता हैं। उसकी शैली ऐसी हो जो पाठकों के मन को अपनी ओर आकृष्ट करे। यह काम भाषा-शक्ति द्वारा होता है। कहानीकार की भाषा में इतनी शक्ति हो, जो साधारण पाठकों को भी अपनें मोह-पाश में बाँध ले।
कहानी का आरम्भ, मध्य और अन्त सुगठित हो, शीर्षक लघु और रोचक हो। अतएव, कहानी की रचना एक कलात्मक विधान है, जो अभ्यास और प्रतिभा के द्वारा रूपाकार ग्रहण करती हैं।
कहानी के तत्व:
मुख्यतः कहानी के छह तत्व मानें गये हैं
[1] कथावस्तु
[2] चरित्र-चित्रण
[3] संवाद
[4] देशकाल या वातावरण
[5] उद्देश्य
[6] शैली
[1] कथावस्तु :-
कथावस्तु के बिना कहानी की कल्पना ही नहीं की जा सकती। यह उसका अनिवार्य अंग है। कथावस्तु जीवन की भिन्न-भिन्न दिशाओं और क्षेत्रों से ग्रहण की जाती हैं। इसके विभिन्न स्रोत है:- पुराण, इतिहास, राजनीति, समाज इत्यादि। कहानीकार इनमें से किसी भी क्षेत्र से कथावस्तु का चुनाव करता है और उसके आधार पर कथानक की अट्टालिका खडी करता हैं। कथावस्तु में घटनाओं की अधिकता हो सकती है और एक ही घटना पर उसकी रचना भी हो सकती है। अब तो कहानी में घटना-तत्व अत्यंत सूक्ष्म होतें जा रहे है। अतएव, आज घटना की आवश्यकता पर अधिक बल नहीं दिया जाता। लेकिन, उनमें कोई-ना-कोई घटना अवश्य होगी।
[2] चरित्र-चित्रण :-
कहानी किसी व्यक्ति या किसी पात्र की होती हैं। यह पात्र ही कहानी में चरित्र कहलाता है। लेकिन इसकी संख्या कम-से-कम होनी चाहिए। तभी कहानीकार उस एक चरित्र के अंतर और बाह्य पक्षों का अधिकाधिक मनोविश्लेषण कर सकता है। मूल घटना से उसका गहरा संबंध होना चाहिए।
[3] संवाद :-
पहले संवाद कहानी का अभिन्न अंग माना जाता था, अब उसकी अनिवार्यता समाप्त हो गयी है। ऐसी अनेकानेक कहानियाँ लिखी गयीं है, या लिखी जाती हैं, जिनमें संवाद का एकदम अभाव रहता है। सारी कहानी वर्णनात्मक या मनोविश्लेषणात्मक शैली में लिख दी जाती हैं। संवाद की कहीं भी अनावश्यकता नहीं पडती। लेकिन संवाद से कहानी के पात्र सजीव और स्वाभाविक बन जाते हैं।
[4] देशकाल या वातावरण :-
कहानी देशकाल की उपज होती है, इसलिए हर देश की कहानी दूसरे देशों से भिन्न होती है। भारत में या इस देश के किसी भी भू-भाग में लिखी कहानियों का अपना वातावरण होता है, जिसकी संस्कृति, सभ्यता, रूढि, संस्कार का प्रभाव उनपर स्वभाविक रूप से पडता है। वास्तव मे।ब, देशकाल कहानी का कोई तत्व नही है। यह अपनें आप आ उपस्थित होता है। यह तो आधार है, जिसपर सारा कार्यकलाप होता हैं।
[5] उद्देश्य :-
यह कहानी का एक तत्व माना जाता है, लेकिन सच तो यह हैं कि साहित्य की किसी भी विधा की रचना निरूद्देश्य नहीं होती। हम निरूद्देश्य जीवन जीना नहीं चाहते। कहानी की रचना भी निरूद्देश्य नहीं होती। कहानीकार का कोई-ना-कोई प्रयोजन हर कहानी की रचना के पीछे रहता है। यह उद्देश्य कहानी के आवरण में छिपा रहता है; प्रकट हो जानें पर उसका कलात्मक सौंदर्य नष्ट हो जाता है।
[6]शैली :-
शैली कहानी के कलेवर को सुसज्जित करनेवाला कलात्मक आवरण होती है। इसका संबंध कहानीकार के आन्तरिक और बाह्य पक्षों से रहता है। कहानी-लेखक अपनी कहानी अनेक प्रकार से कहना चाहता है। वह उसे वर्णात्मक, संवादात्मक, आत्मकथात्मक, विवरणात्मक, पत्रात्मक किसी भी रूप में लिख सकता हैं। उसकी शैली ऐसी हो जो पाठकों के मन को अपनी ओर आकृष्ट करे। यह काम भाषा-शक्ति द्वारा होता है। कहानीकार की भाषा में इतनी शक्ति हो, जो साधारण पाठकों को भी अपनें मोह-पाश में बाँध ले।
कहानी का आरम्भ, मध्य और अन्त सुगठित हो, शीर्षक लघु और रोचक हो। अतएव, कहानी की रचना एक कलात्मक विधान है, जो अभ्यास और प्रतिभा के द्वारा रूपाकार ग्रहण करती हैं।
नितेश वर्मा
Kahani-Lekhan key bare me jankar accha lag.
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