पप्पा! मैं भी अब स्कूल जाऊँगां। राजू ने तेज़ी से दौडते-दौडते आकर हरिया से कहा। पापा, मुझे भी श्याम भैया की तरह एम.बी.ए. करके उनके जैसी बडी गाडी खरीदनी हैं। और फिर पापा उसमें मैं, आप और माँ साथ-साथ घूमा करेंगे, कितना मज़ा आयेगा ना, पापा। हरिया राजू की बातों को सुनकर द्रवित हो गया। वो बेचारा रोज़ाना कमानें वाला मज़दूर आखिर क्या पढाऐगा अपनें बेटे को, और उपर से ऐसे बडे ख्यालों को कैसे सच कराऐंगा जो उसके बेटे ने अंज़ानें में सँजों रक्खे हैं।
मग़र कहते है जब बच्चें माँ-बाप को जान से भी ज्यादा प्यारें हो तो वो खुद को गिरवीं रखकर भी अपनें बच्चें के सपनों को पूरा करते हैं। ठीक वैसा ही हरिया नें भी अपना पुत्र-प्रेम दिखातें हुएं करा था। हरिया की मेहनत और राजू की लगन ने उसे आखिरकार उस आलिशान कार तक पहुँचा ही दिया। लेकिन वो कहतें हैं ना ज़माना कहाँ कभी किसी के मुसीबतों को समझता हैं। हरिया के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था, राजू के उच्च शिक्षा हेतु उसनें अपनें घर से लेकर खेत तक को गिरवीं रख दिया था। एक शब्द में कहें तो सर से पावं तक वो कर्ज़ें में डूबा पडा था।
कुछ दिनों बाद राजू एक बडे से कार में आया और नोटों का एक भरा बैग हरिया के सामनें फेंकते हुएं कहा : आप अपना हिसाब कर लो मैं अब यहाँ रहना नहीं चाहता।
उबन सी होती हैं यहाँ, दम घुंटता रहता हैं यहां, मुझे यहाँ जीनें की आदत नहीं, जल्दी से आप बस हिसाब करों।
हरिया को बहोत पछतावा होता हैं जैसे उसनें अपनें बेटे को पढा-लिखा कर कोई पाप कर दिया हो। उसकी आँखों से आँसूओं की धाराएँ बहनें लगी। तभी अचानक कार में बैठी एक लडकी कार का हाँर्न बजाती हैं और उस बडी सी कार के उच्च ध्वनि में जैसे हरिया की सिसकियां छुप-सी जाती हैं। हरिया को जैसे लगता हैं उसकी यह हाल देख वहां की गलियां भी शर्मिंदा हैं जहां कभी राजू दिन-भर खेला करता रहता था। हवाएं भी अब खामोश ही हैं, किसी शोर-शराबें से जैसे मीलों दूर।
राजू शायद अब मार्डन हो चला था। भावुकता, भावनाएँ जैसे शब्द वो तो कहीं उन एम.बी.ए. की गलियों में छोड आया था। हरिया लाचार कभी फेंके हुएं रास्तें पे रखी बैग को देखता था तो कभी सूरज की बढती तपीश को जैसे वो आज़ उसके किएं से खफा हो। बाप का फर्ज़ निभातें-निभातें वो तो यह भूल ही गया था, आज़ के बेटे कैसे होते हैं। लाचारी, बेबसी, लोभी क्या कहें इसे शब्द भी शर्मं से आज़ शर्मिंदा हैं।
दूबारा हाँर्न बजनें पर राजू हरिया को यह सुनाता-सुनाता चला गया : अच्छा ठीक हैं रख ही लो पूरा..
मैं किसी का आभार नहीं रखता।
जातें-जातें उसने ऐसा कुछ कह दिया हो जिससे हरिया फूट-फूट कर रोनें लगा। उसकी आवाज़ें तो हो रही बारिशें भी ना छुपा पाई थीं। मौसम में एक ठंडक आ गई थीं लेकिन हरिया तो जैसे वो कोयला हो गया था जिसपे जलनें से पहलें ही किसी ने पानी डाल दिया हो। वह उठ खडा हुआ। शाम हो चली थीं उसे लगा जैसे अब घर को चलना चाहिएं। वो पैसे टटोलनें लगा कुछ तो आँधियाँ बहा के ले के चली गई थी तो कुछ बारिशों के कारण खराब हो चले थें। हरिया जिस बेचैनी से पैसों को इकट्ठा कर रहा था उसी बेचैंनी से यह भी सोच रहा था अखिर वो घर जाकर क्या कहेगा। ज़मींदार,साहूकार तो पैसा माँगेंगे लेकिन वो राजू के माँ को क्या कहेगा जिसनें राजू की पढाई में कोई बाधा ना हो, अपनी तमाम ज़िन्दगी को उस दो साडी और गलें के एक मंगलसूत्र में गुजार दिया था। आज़ वो सवाल करेगी तो हरिया क्या कहेगा, हरिया अपनें हाँल से शर्मिंदा यही सोच रहा था शायद यही की ग़रीब का बेटा अब ग़रीब ना रहा।
सोच:-
ज़िन्दगी का भी बहोत अज़ीब दस्तूर हैं। कब कैसा रूख मोड ले पता ही नहीं चलता। घर का एक सदस्य जो सपना देखता हैं उसके अपनें भी उसी सपनें में खुद को सँजोनें लगते हैं। बहोत ही संवेदनशील स्थिति होती हैं, आखिर हमें कैसे पहचान हो कौन आगे जाकर हमारें अपने ही हमारें दुख का कारण बन जाएं। बहोत मुश्किल हैं कुछ कहना, जैसा हमेशा एक प्रश्नचिन्ह एक समाज़ पर होता हैं, उसी का यह उद्दृत अंश हैं।
..नितेश वर्मा..
मग़र कहते है जब बच्चें माँ-बाप को जान से भी ज्यादा प्यारें हो तो वो खुद को गिरवीं रखकर भी अपनें बच्चें के सपनों को पूरा करते हैं। ठीक वैसा ही हरिया नें भी अपना पुत्र-प्रेम दिखातें हुएं करा था। हरिया की मेहनत और राजू की लगन ने उसे आखिरकार उस आलिशान कार तक पहुँचा ही दिया। लेकिन वो कहतें हैं ना ज़माना कहाँ कभी किसी के मुसीबतों को समझता हैं। हरिया के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था, राजू के उच्च शिक्षा हेतु उसनें अपनें घर से लेकर खेत तक को गिरवीं रख दिया था। एक शब्द में कहें तो सर से पावं तक वो कर्ज़ें में डूबा पडा था।
कुछ दिनों बाद राजू एक बडे से कार में आया और नोटों का एक भरा बैग हरिया के सामनें फेंकते हुएं कहा : आप अपना हिसाब कर लो मैं अब यहाँ रहना नहीं चाहता।
उबन सी होती हैं यहाँ, दम घुंटता रहता हैं यहां, मुझे यहाँ जीनें की आदत नहीं, जल्दी से आप बस हिसाब करों।
हरिया को बहोत पछतावा होता हैं जैसे उसनें अपनें बेटे को पढा-लिखा कर कोई पाप कर दिया हो। उसकी आँखों से आँसूओं की धाराएँ बहनें लगी। तभी अचानक कार में बैठी एक लडकी कार का हाँर्न बजाती हैं और उस बडी सी कार के उच्च ध्वनि में जैसे हरिया की सिसकियां छुप-सी जाती हैं। हरिया को जैसे लगता हैं उसकी यह हाल देख वहां की गलियां भी शर्मिंदा हैं जहां कभी राजू दिन-भर खेला करता रहता था। हवाएं भी अब खामोश ही हैं, किसी शोर-शराबें से जैसे मीलों दूर।
राजू शायद अब मार्डन हो चला था। भावुकता, भावनाएँ जैसे शब्द वो तो कहीं उन एम.बी.ए. की गलियों में छोड आया था। हरिया लाचार कभी फेंके हुएं रास्तें पे रखी बैग को देखता था तो कभी सूरज की बढती तपीश को जैसे वो आज़ उसके किएं से खफा हो। बाप का फर्ज़ निभातें-निभातें वो तो यह भूल ही गया था, आज़ के बेटे कैसे होते हैं। लाचारी, बेबसी, लोभी क्या कहें इसे शब्द भी शर्मं से आज़ शर्मिंदा हैं।
दूबारा हाँर्न बजनें पर राजू हरिया को यह सुनाता-सुनाता चला गया : अच्छा ठीक हैं रख ही लो पूरा..
मैं किसी का आभार नहीं रखता।
जातें-जातें उसने ऐसा कुछ कह दिया हो जिससे हरिया फूट-फूट कर रोनें लगा। उसकी आवाज़ें तो हो रही बारिशें भी ना छुपा पाई थीं। मौसम में एक ठंडक आ गई थीं लेकिन हरिया तो जैसे वो कोयला हो गया था जिसपे जलनें से पहलें ही किसी ने पानी डाल दिया हो। वह उठ खडा हुआ। शाम हो चली थीं उसे लगा जैसे अब घर को चलना चाहिएं। वो पैसे टटोलनें लगा कुछ तो आँधियाँ बहा के ले के चली गई थी तो कुछ बारिशों के कारण खराब हो चले थें। हरिया जिस बेचैनी से पैसों को इकट्ठा कर रहा था उसी बेचैंनी से यह भी सोच रहा था अखिर वो घर जाकर क्या कहेगा। ज़मींदार,साहूकार तो पैसा माँगेंगे लेकिन वो राजू के माँ को क्या कहेगा जिसनें राजू की पढाई में कोई बाधा ना हो, अपनी तमाम ज़िन्दगी को उस दो साडी और गलें के एक मंगलसूत्र में गुजार दिया था। आज़ वो सवाल करेगी तो हरिया क्या कहेगा, हरिया अपनें हाँल से शर्मिंदा यही सोच रहा था शायद यही की ग़रीब का बेटा अब ग़रीब ना रहा।
सोच:-
ज़िन्दगी का भी बहोत अज़ीब दस्तूर हैं। कब कैसा रूख मोड ले पता ही नहीं चलता। घर का एक सदस्य जो सपना देखता हैं उसके अपनें भी उसी सपनें में खुद को सँजोनें लगते हैं। बहोत ही संवेदनशील स्थिति होती हैं, आखिर हमें कैसे पहचान हो कौन आगे जाकर हमारें अपने ही हमारें दुख का कारण बन जाएं। बहोत मुश्किल हैं कुछ कहना, जैसा हमेशा एक प्रश्नचिन्ह एक समाज़ पर होता हैं, उसी का यह उद्दृत अंश हैं।
..नितेश वर्मा..
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