Saturday, 30 August 2014

खंजर कई [Khanjar Kai]

बेसबर चले आ रहे है मौत के मंजर कई
निकालें थें जो मैंनें मासूम पे खंजर कई

दिल की गहराइयों पे भी वो उखडा सा है
इक मासूम चेहरा जिनपे सजे है पहरें कई

मान लिया जो सबनें बेटियां बेगानी ही हैं
घुट के मरे कही रक्खे है बंद कमरें कई

वो उडता परिंदा भी अब बेचैंन-सा रहता हैं
ढूंढता है जीभर सुकूँ लिये खुद की नजरे कई

इस सोच को भी दरिया में मिला आता तू
अपना नहीं यहाँ जब दौलत को पडे हो कई

बेगानों की बस्ती से गुजरना भी जरूरी था
अपनों ने भी तो मारें थे गालों पे तमाचें कई

नितेश वर्मा

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