Friday, 19 June 2015

वर्मा हरेक दहलीज़ इमान बनकर मैं जो जाता हूँ

जब भी तुझे मैं देखता हूँ मैं मिट्टी का हो जाता हूँ
वो तेरा बरसात का होना खुद में मैं खो जाता हूँ

ऐ खुदा अब पत्थर सी होनें की कसक उठती हैं
दीवारों में ही कहीं घर के हिस्सें में तो हो जाता हूँ

चलो ज़िंदगी अब वो तेरा भी कुछ हिसाब कर ले
मौत की घडियां गिनता हूँ तब मैं भी रो जाता हूँ

कुछ ही मग़र ये खामोशियाँ भी दफ्न हैं सीनें में
अब वो शजर नहीं तो इस शहर में ही सो जाता हूँ

बुलाती हैं भेजी उसकी हर चिठ्ठी मुझे मेरे गाँव को
अब तो गुमाने-शोख हैं माँ के पास मैं नो जाता हूँ

लिख कर फिर मिटा दी या रब कैसी किस्मत हैं
वर्मा हरेक दहलीज़ इमान बनकर मैं जो जाता हूँ

नितेश वर्मा और मैं

No comments:

Post a Comment