इस तरह ज़माने में कुछ और हुआ नहीं
मैं ठहरा रहा.. किसी को गौर हुआ नहीं।
मैं ठहरा रहा.. किसी को गौर हुआ नहीं।
इश्क़ भी किया, काम भी करता रहा मैं
मगर ज़ाहिर करुँ शउरे तौर हुआ नहीं।
मगर ज़ाहिर करुँ शउरे तौर हुआ नहीं।
वो बदकिस्मत कंकड़ों से घर बनाता है
शहर जिसका कभी लाहौर हुआ नहीं।
शहर जिसका कभी लाहौर हुआ नहीं।
इश्क़ में सौ दफ़े मात खाकर बैठा रहा
दिल में जिसके ज़ख़्म बतौर हुआ नहीं।
दिल में जिसके ज़ख़्म बतौर हुआ नहीं।
यूं बारिश उस हर्फ़ को पढ़ता था वर्मा
किताबों से जो कभी बग़ौर हुआ नहीं।
किताबों से जो कभी बग़ौर हुआ नहीं।
नितेश वर्मा
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