Sunday, 1 January 2017

एक ख़त लिख रहा हूँ तुम्हें

प्यारी माहीन!

एक ख़त लिख रहा हूँ तुम्हें.. ख़त क्या? समझो अपना दिल निकालकर इस कोरे से काग़ज पर रखकर भेज रहा हूँ। इक दरख़्वास्त है बस, इसे आधा पढ़कर फाड़कर मत फ़ेंक देना। पूरा पढ़ना और बार-बार पढ़ना.. और तबतक पढ़ते रहना जबतक तुम्हें इस ख़त के लिखे हुए एक-एक हर्फ़ पर यक़ीन ना हो जाएं। मैंने जहाँ तक सुना है उसके हिसाब से एक बात बताता हूँ तुम्हें.. अग़र इश्क़ में यक़ीन ना हो तो मुहब्बत कभी मुकम्मल नहीं होती। तुमपर यक़ीन रखना ही मेरी मुहब्बत का सुबूत है.. बदले में कुछ ख़्वाहिश जताना वो मेरा निज़ी स्वार्थ है। एक बात और बताऊँ इस ज़माने में कुछ नहीं बदलता ना ही वक़्त बदलता है और ना ही इंसान.. ना भगवान कभी बदलकर सामने आते है और ना ही दानव। जो है.. जैसा है बिलकुल सबकुछ वैसा ही रहता है अग़र इन सबके बीच कुछ बदलता है तो वो है बस एक नज़रियाँ। सब नज़रों का ही दोष है वो चाहे इश्क़ का होना हो या किसी चौराहे पर किसी ख़ून का होना। ख़ैर, ख़ून का होना ये अलग मसला भी हो सकता है मगर इश्क़.. इश्क़ तो बस नज़रों का ही खेल है। अज़ीब बाज़ियाँ होती हैं इसमें हारना-जीतना तो कभी तय ही नहीं हो पाता है। इश्क़ में भटकना क्या होता है जानती हो तुम?
चलो छोड़े इतना ज्ञान बघारना अच्छा नहीं। कभी मिलो.. जहाँ तुम कहो! फ़िर तमाम बातें तफ़सील से करेंगे। तुम बस सुनना उस दिन.. उस दिन सिर्फ़ और सिर्फ़ मैं कहूँगा। तुम बस मेरी आँखों में देखना चाहो तो सर भी कांधे पर रख लेना इसकी पूरी इजाज़त है तुम्हें। अपनी ख़त में या इसके जवाब में बस एक तारीख़ लिखकर भेज देना।

तुम्हारे ख़त इंतज़ार में-
तुम्हारा बशर
नितेश वर्मा

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