Tuesday, 15 November 2016

यूं ही एक ख़याल सा..

इंसान को कभी इतना भी नहीं गिरना चाहिए कि वो अपने गमों के सौदे में अपनी अना बेच दे। किसी दर्द के इलाज़ में अपनी ग़ैरियत बेच दे और फ़िर भी जब कुछ हासिल ना कर पाए तो घुटन से मर जाएं। बुरा वक़्त इतना भी बुरा नहीं होता कि उससे मुँह फेर लिया जाए.. ये एक सबक होता है उन तमाम अनुभवों का जो हम इस ज़िंदगी में महसूस कर पाते हैं।
किसी से सिफ़ारिश लगवाना और उससे मुँह की खाना, उसकी तमाम बेफ़िजूलियत को सुनना, उसके हाँ में हाँ मिलाना। हर बार ख़ुद से ही हारना.. ख़ुदके ही नज़रों में हज़ारों बार गिरना-उठना।
दु:ख के बोझ से दुहरा होना, मंदिरों में भटकना और फ़िर नाकाम होकर शाम को घर लौट आना। क्या ख़ाक ज़िंदगी है जो हर दफ़ा मारने और गिराने में यक़ीन रखती है। एक सबक सिखाने के लिए तिल-तिल किसी ज्वलंत आग में जलाती रहती है। मैं हैरान हूँ ख़ुदसे और ख़ुदा के बनाएँ हुए इस तिलिस्म से.. इस बार तो कसम से।

किसी पर यक़ीन कर चुप बैठ जाना सही नहीं
ये ज़िंदगी कुछ और है ज़ल्द समझ आती नहीं।

नितेश वर्मा
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