Tuesday, 15 November 2016

किसी ख़्वाब की सुब्ह है तू

किसी ख़्वाब की सुब्ह है तू
हर दरम्यान हर जगह है तू
इक नींद की आँच में हैं हम
करवटों में सुलग रही है तू

नज़र जब मुझमें ख़ामोश रही
बादलों में बारिश सी हो गयी
मैं लापता कमबख़्त बैठा रहा
भीगती सायों में दो ज़िस्में कहीं

जब हुआ ना तलब होश का
मैं बेवज़ह फ़िरता ख़ामोश सा
पते का कोई जिक्र ही नहीं
मंजिल से दूर मैं बेहोश सा

कुछ यूं मैं आके ख़ुदसे मिला
दिल को ही जैसे दिल से गिला
बात पूरी ना हुई, मैं बेचैन रहा
हवाओं में काग़ज जैसे ना हिला।

नितेश वर्मा

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