Tuesday, 21 June 2016

मेरी ख़ामुशी भी अब आवाज़ करती है

मेरी ख़ामुशी भी अब आवाज़ करती है
ये इम्तिहान यूं मुझे बेलिहाज़ करती है।

शर्मिंदगी मेरे आँखों से दूर है बिलकुल
कश्ती बेमतलब मुझे जहाज करती है।

उसे मैं तो कबका भूल चुका हूँ शायद
ये याद! फिर उसे मेरा आज करती है।

ख़्वाबों के पन्नों पे समझौता किया मैंने
किताब अब ये मुझे बेदराज़ करती है।

नहीं मालूम मैं मुहब्बत में क्यूं हूँ वर्मा
मुफ़लिसी आके बदमिजाज़ करती है।

नितेश वर्मा

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