कंगाल होके किसी बस्ती में रहने लगा हूँ मैं
जिद कभी थी कि शह्र में रोशन होऊँगा मैं।
आखिर मैं भी कब तक किसी से ख़फ़ा रहूँ
उसकी जिद थी के यूं मुकम्मल होऊँगा मैं।
मैंने वो सारी ख़्वाहिशातें अधूरी रखी हुई है
जो घर छोड़कर सोचा था ग़ज़ब होऊँगा मैं।
मुझमें नाजाने क्या समाया हुआ है ये वर्मा
कबसे ये सोच रहा था के शायर होऊँगा मैं।
नितेश वर्मा
जिद कभी थी कि शह्र में रोशन होऊँगा मैं।
आखिर मैं भी कब तक किसी से ख़फ़ा रहूँ
उसकी जिद थी के यूं मुकम्मल होऊँगा मैं।
मैंने वो सारी ख़्वाहिशातें अधूरी रखी हुई है
जो घर छोड़कर सोचा था ग़ज़ब होऊँगा मैं।
मुझमें नाजाने क्या समाया हुआ है ये वर्मा
कबसे ये सोच रहा था के शायर होऊँगा मैं।
नितेश वर्मा
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