कहानी लिखने के लिए सबसे ज्यादा जरूरी चीज़ क्या है? क्या कहानी के किरदार या उस कहानी का परिणाम। या कहानी की रूपरेखा, उसकी स्थापना या कहानी लिखने का ज्ञान?
कहानी लिखने के लिए क्या ख़्वाबों-ख़्यालों में उतरने की जरूरत होती हैं? या ख़ुद के ख़्वाबों को बेचने की। कहानी लिखने के लिए क्या ऊपरवाले की अनुमति कि जरूरत होती है या कोई भी कहानी लिख सकता है?
ऐसे बहुत सारे सवाल कहानी लिखने से पहले मुझे आते रहे हैं,अकसर। मैं कहानियों का व्यापार कर सकता हूँ, लेकिन कहानियाँ कोई व्यापार की चीज़ नहीं। सब कहानी नहीं लिख सकते, क्योंकि सबको ये नेमत ऊपरवाले ने नहीं दे रखी है। कहानी लिखने के लिए मरना पड़ता है, दिल को एक-दो बार तुड़वाना पड़ता है और दिल ना सही तो ना पर, कमसेकम अपनी इच्छाओं अपनी ख़्वाहिशों को अधूरा रखना पड़ता हैं। कहानी किसी ख़ोज़, किसी कमी से लिखी जाती है। कहानी दिल-बयानी करती है। कहानी लिखने के लिए एक अधूरापन चाहिये और जिनके पास ये अधूरापन नहीं है वो कहानी नहीं लिख सकते, वो इतिहास लिखते हैं क्यूंकि परिपक्वता इतिहास का सृजन करती है ना कि कहानियों का। दास्तान मरते नहीं इतिहास शायद वक़्त के साथ दब सकती है। लैला-मज़नू आज-तक जिंदा है, युसूफ़-जुलेखा आज भी सबसे ज़ुबान पर है। दास्तान कहना एक अलग चीज़ है और मुझे कभी-कभी इस बात का फख़्र होता है कि मैं भी एक मामूली सा दास्तानगो हूँ। कहानी कभी अगली दफ़ा सुनाऊंगा, आज बस इतना ही।
नितेश वर्मा
कहानी लिखने के लिए क्या ख़्वाबों-ख़्यालों में उतरने की जरूरत होती हैं? या ख़ुद के ख़्वाबों को बेचने की। कहानी लिखने के लिए क्या ऊपरवाले की अनुमति कि जरूरत होती है या कोई भी कहानी लिख सकता है?
ऐसे बहुत सारे सवाल कहानी लिखने से पहले मुझे आते रहे हैं,अकसर। मैं कहानियों का व्यापार कर सकता हूँ, लेकिन कहानियाँ कोई व्यापार की चीज़ नहीं। सब कहानी नहीं लिख सकते, क्योंकि सबको ये नेमत ऊपरवाले ने नहीं दे रखी है। कहानी लिखने के लिए मरना पड़ता है, दिल को एक-दो बार तुड़वाना पड़ता है और दिल ना सही तो ना पर, कमसेकम अपनी इच्छाओं अपनी ख़्वाहिशों को अधूरा रखना पड़ता हैं। कहानी किसी ख़ोज़, किसी कमी से लिखी जाती है। कहानी दिल-बयानी करती है। कहानी लिखने के लिए एक अधूरापन चाहिये और जिनके पास ये अधूरापन नहीं है वो कहानी नहीं लिख सकते, वो इतिहास लिखते हैं क्यूंकि परिपक्वता इतिहास का सृजन करती है ना कि कहानियों का। दास्तान मरते नहीं इतिहास शायद वक़्त के साथ दब सकती है। लैला-मज़नू आज-तक जिंदा है, युसूफ़-जुलेखा आज भी सबसे ज़ुबान पर है। दास्तान कहना एक अलग चीज़ है और मुझे कभी-कभी इस बात का फख़्र होता है कि मैं भी एक मामूली सा दास्तानगो हूँ। कहानी कभी अगली दफ़ा सुनाऊंगा, आज बस इतना ही।
नितेश वर्मा
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