शाम में उम्मीद नज़र आती है अकसर
सुबह जाने क्यूं ये ढ़ल जाती है अकसर।
रूसवां हमसे अब हम ही रहते है क्यों
क्यूं ये सवाल यूं बात बढ़ाती है अकसर।
जब-तक थे तेरे नाम से हम एक नाम थे
अब बस तेरी ख़्वाब रूलाती है अकसर।
मयस्सर नहीं हमको ये दिले ख़ुशनसीबी
एक तस्वीर हमें यूं पिघलाती है अकसर।
सब शायद इन्हीं निगाहों की ला हैं वर्मा
फ़र्क़ ये आख़िर क्या बताती है अकसर।
नितेश वर्मा
सुबह जाने क्यूं ये ढ़ल जाती है अकसर।
रूसवां हमसे अब हम ही रहते है क्यों
क्यूं ये सवाल यूं बात बढ़ाती है अकसर।
जब-तक थे तेरे नाम से हम एक नाम थे
अब बस तेरी ख़्वाब रूलाती है अकसर।
मयस्सर नहीं हमको ये दिले ख़ुशनसीबी
एक तस्वीर हमें यूं पिघलाती है अकसर।
सब शायद इन्हीं निगाहों की ला हैं वर्मा
फ़र्क़ ये आख़िर क्या बताती है अकसर।
नितेश वर्मा
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