Wednesday, 4 February 2015

के जो ये मुहब्बत पढे भी तो किसकी आँखों में

के जो ये मुहब्बत पढे भी तो किसकी आँखों में
अपना कोई हैं ही नहीं तो रहें किसकी आँखों में

कितनी मुश्किलों से भूलाया था उसकी यादों को
पल-पल मर रही हैं बेकसूर ये जिसकी आँखों में

चाहत तो बस इतनी-सी थीं की वो मुकम्मल रहें
आज़ादी नहीं हैं ढूँढती खौफ हैं जिसकी आँखों में

ये माना के चंद लम्हात की ही की थीं गुजारिशें
मग़र अब मौहलत कहाँ जो रहें उसकी आँखों में

क्यूं तन्हा-तन्हा सा रहता हैं ये उदास दिल मेरा
और पूछता हैं पल रहीं हैं क्या उसकी आँखों में

नितेश वर्मा


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