Sunday, 8 February 2015

खरीदतें होगे तुम ही कहीं इन बिकती इमानों को

डूब रहें हैं प्यासें और भी न-जानें सिकंदर कितनें
एक तू ही नहीं और भी हैं न-जानें कलंदर कितनें

खरीदतें होगे तुम ही कहीं इन बिकती इमानों को
शहर में यूं ही न-जानें अब घूमतें हैं खंज़र कितनें

इन बहती हवाओं का उम्मीद भी नकारा निकला
चराग़ साथ और परेशान न-जानें ये मंज़र कितनें

क्यूं बदल के रक्खी हैं फितरत इन हुक्मरानों नें
घुस के बैठें हैं सियासत में न-जानें ये बंदर कितनें

नितेश वर्मा


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