Saturday, 7 February 2015

तोडती हैं लब्ज़ उनकी ये दौडती नब्ज़ मेरी

यूं तो अभ्भी हम उस नजर से बे-नजर से हैं
नजानें, वो कितनें हमसे अभ्भी बेखबर से हैं

करती हैं बेचैनियाँ नजानें कैसी सवालें हमसे
वो सब समझ के, अभ्भी कितनें बेसबर से हैं

इतना सा भी उसे यकीं नहीं मेरी बयानों का
और कहतें हैं अभ्भी, ये जां तेरे फिकर से हैं

तोडती हैं लब्ज़ उनकी ये दौडती नब्ज़ मेरी
उनके ख्यालों में डूबें, कितने दर-बदर से हैं

नितेश वर्मा


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