रातें अब बेजान सी हो चली हैं.. कुछ कसक सी हैं सीनें में कही.. कौन चाहता हैं.. यूं ही दर्द-बेदर्द का आलम सहतें रहें.. कौन चाहता हैं बातें फिर से करें.. कहानियाँ किताब के पन्नों में ही सही लगती हैं..
दिल उदास हो तो जुबां से भी खरास ही निकलती हैं.. तल्खियाँ, कडवाहटें घर ले लेती हैं.. इंसान बस मजबूर-सा लगता हैं.. यहीं आलम हैं की बातें भी उसकी कुछ को ही समझ में आती हैं या पसंद
अब तो यूं बस मैं मुन्तजिर बैठा हूँ
ख्वाब में वो अब अच्छी नहीं लगती
नितेश वर्मा
दिल उदास हो तो जुबां से भी खरास ही निकलती हैं.. तल्खियाँ, कडवाहटें घर ले लेती हैं.. इंसान बस मजबूर-सा लगता हैं.. यहीं आलम हैं की बातें भी उसकी कुछ को ही समझ में आती हैं या पसंद
अब तो यूं बस मैं मुन्तजिर बैठा हूँ
ख्वाब में वो अब अच्छी नहीं लगती
नितेश वर्मा
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