Monday, 30 March 2015

पहचानतें जिस चेहरें को चेहरा अब कहीं नहीं

जल गए वो दिन जो गुजरें थें कभी तेरे छावं
शहर की वो आग, बचा शज़र अब कहीं नहीं

दौडतें-दौडतें दिन गुजरें, बसेरा रात का कहीं
पहचानतें जिस चेहरें को चेहरा अब कहीं नहीं

बडे दूर की ख्वाहिश बडे दूर की हैं तमन्ना
यूहीं तन्हा सफर, नींद बची अब कहीं नहीं

लेकर गुजर गया, वो जो चाहता था मुझसे
परिंदों का था जो बसेरा बचा अब कहीं नहीं

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