Sunday, 19 April 2015

अब डर लगता हैं मुझे

अब डर लगता हैं मुझे
तुमसे कुछ कहना तो
कुछ छुपाना पडता हैं मुझे

यकीनन
हर बार मुकरना पडता हैं मुझे
दिल की गहराई में
हैं जो समाई बात
जुबां पे रखना पडता हैं मुझे
अब डर लगता हैं मुझे

साँसों को नींद की करवट में
धडकनों को आहिस्ता से
यूं हौलें से
जिंदा रहना पडता हैं मुझे
कुछ समेटना
तो कुछ छोडना पडता हैं मुझे
अपनों के साथ
ऐसा जीना पडता हैं मुझे
अब डर लगता हैं मुझे

सुबह की ओंस में
सांझ की रोस में
ऐसे ही कभी जलना
तो कभी बुझना पडता हैं मुझे
कभी सौ मील पैदल
तो कभी मंज़िल घर की
हर ओर वक्त पे चलना पडता हैं मुझे

उसके वादों से उसके बातों से
उसके ख्यालों से कैसे हो कोई जुदा
हमदर्द
उस दर्द को सहना पडता हैं मुझे
अब डर लगता हैं मुझे
अब डर लगता हैं मुझे

नितेश वर्मा

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