Monday, 24 November 2014

उन आँखों की कहती जुबानी को सुन लो

उन आँखों की कहती जुबानी को सुन लो
मुझसे मेरी बची इक कहानी को सुन लो

बातों से ना अब यह समुन्दर बाँधों तुम
मुझसे तो अपनी बेईमानी को सुन लो

उन सौ सवालों का जो इक जवाब हैं आया
मिला जो अब सुकूं उस सुहानी को सुन लो

मैं तो अपनें ही उन वादों में उल्झा रहा था
कहतें रहें जो सब उस दीवानी को सुन लो

नितेश वर्मा

Sunday, 23 November 2014

इन आँखों का कुसूर इतना था

इन आँखों का कुसूर इतना था
तेरे यादों में कभी ये रोई बहोत

नितेश वर्मा

क्या करेगा जिस्म

क्या करेगा जिस्म
जब वो
आँसूओं से धूल जाऐगा
यकीनन
हो एक दिन कहीं
मिट्टी में वो मिल जाऐगा

कालिख रातों का
सफ़र भी सुहाना-सा हैं
जब तलक
बहती हवाओं से
जुल्फ़ सँभाल जाऐगा
कहीं और भूल जाऐगा
तो ये दिल
कहीं धूल जाऐगा

क्या करेगा जिस्म
जब वो
आँसूओं से धूल जाऐगा

नितेश वर्मा

दिल इक शोर किये बैठा हैं

दिल इक शोर किये बैठा हैं
मुझे खुद ही
कहीं चोर किये बैठा हैं
यूं बुलाता हैं
ये ना-जानें ऐसा क्या
जैसे एक छोर पे
ये दिल का कोर किये बैठा हैं
दिल इक शोर किये बैठा हैं

तिनका-तिनका समेटा
अँधेरों का जुबां पढा
कहता क्या
जो ज़ुर्म के अंदर ही अंदर
घुट-घुट के मरा
बहोत शौक से
एक शोक पे बैठा हैं
ये दिल ना-जानें
क्यूं अब भोर किये बैठा हैं
दिल इक शोर किये बैठा हैं

नितेश वर्मा

कितनी रोई हैं ये आँखें की आईना भींग-सा गया हैं

कितनी रोई हैं ये आँखें की आईना भींग-सा गया हैं
रातें नमी लिये बैठी हैं और आँखें भींग-सा गया हैं

नितेश वर्मा

इक तलब इस शाम तक हैं,ये दिल तेरे किस काम तक हैं

इक तलब इस शाम तक हैं,ये दिल तेरे किस काम तक हैं
यूं हीं पूछ के फिर नाम मेरा, ख्याल तेरा तो इनाम तक हैं

नितेश वर्मा

इक बेफिक्र शाम

इक बेफिक्र शाम
जिसमें तुम
तुम्हारी बातें, तुम्हारी यादें

बादलों के बीच बनती
वो तुम्हारी तस्वीर
जिसकी ज़ुल्फें
यूं ही बेवजह
बारिशों के साथ मचलती

और
हर हल्की धीमें फुहारों के बाद
वो इक सायें से
तुम्हारा झांकना
और फिर
उस मचलती धूप के
पीछें हो जाना

तुम्हारा मेरे दिल में
धुएं की तरह कहीं छुप जाना
मुझसे मिलना मुझसे रूठना
मेरे ना होनें से
तुम्हारा बिगडना

आँधियों के बीच
मुझें बाहों में भींचना
बेफिक्र-सा
वो तुम्हारा प्यार
इस फिक्र में गुजरती
यें मेरी
इक बेफिक्र शाम

इक बेफिक्र शाम
जिसमें तुम
तुम्हारी बातें, तुम्हारी यादें

नितेश वर्मा

उसका होना मेरे होनें से कितना अलग हुआ

उसका होना मेरे होनें से कितना अलग हुआ
उसकी जुल्फों में ही
इक छाव, इक धूप,
इक रात, इक भोर हुआ

निगाहों का मिलना
होंठों का ठहरना
यूं ही बेवजह
सर-सराती पत्तियों का मचलना
कितना कुछ अलग हुआ
हर शोर के पीछें
जैसे एक कातिल कोई चोर हुआ
उसका होना मेरे होनें से कितना अलग हुआ

वो हल्की बारिशों-सी थीं
मेरा दिल शायद कोई बर्फ़ हुआ
उसकी बातें कहीं दूर ले जाती
मैं जमीं का जैसे रेंत हुआ
मेरे और उसमें
बहोत कुछ अलग-सा होगा
मगर दिल
उसके होनें से ही दिल हुआ
फिरता कहाँ हैं कहीं ये यूं ही
उसके होनें से ही मैं मुकम्मल हुआ
उसका होना मेरे होनें से कितना अलग हुआ

नितेश वर्मा

अंजानें में ही मिला होगा वो कहीं तो

अंजानें में ही मिला होगा वो कहीं तो
जुबां पर बसा हैं उसका नाम तभी तो

जुल्फों का बन गया हैं लट यूं ही तो
हुआ तो होगा खुलके बारिश कभी तो

वो तो डायरी के पन्नों से भी खफ़ा हैं
हुआ होगा दिल के आईनें पे कभी तो

इंंतजार तो उसके बस हाँ तक का हैं
कहता हैं कहाँ वो इक बात, वहीं तो

मैं तो उससे भी ना कुछ बोल पाया
ता-उम्र कहता,डरूगाँ उससे नहीं तो

नितेश वर्मा

..इक सियासत हैं..

..इक सियासत हैं कुछ तुममें कुछ मुझमें.. ..जहाँ कोई बात हैं वहाँ इक सियासत हैं.. ..हुई हैं गर रात तो सियासत हैं.. ..सबेरा के आगे इक सियासत हैं....धर्म हैं तो इक सियासत हैं..

..जहाँ अधर्म हैं वहाँ इक सियासत हैं.. ..प्यार हैं तो इक सियासत हैं.. ..फ़रेब में इक सियासत हैं.. ..हर बात में इक सियासत हैं.. ..हर आवाज़ में इक सियासत हैं..
..किताब में इक सियासत हैं.. ..इस आज़ में इक सियासत हैं.. ..उस बीतें कल में इक सियासत हैं..

..हर जगह,हर ओर,हर ज़ुबां पे इक सियासत हैं.. ..गर तुम हो तो सियासत हैं.. ..ना हो तो इक सियासत हैं..

..लिख रहें हो तो इक सियासत हैं.. ..पढ रहें हो तो इक सियासत हैं.. ..गर हिन्दुस्तान में हो तो इक सियासत हैं..

..इक सियासत हैं..

..नितेश वर्मा..

ख्याल उसका हैं, कोई बात नहीं

उसके फैसलें अब उसके जैसे नहीं
बदल रही हैं रूहें
बदल रही हैं वो..

ख्याल उसका हैं, कोई बात नहीं
बदल रहें हैं सवालें
और बदल रहें हैं हम..

नज़र उनकी ही चेेहरें तक की हैं
ढूँढतें हैं वो जवाब
और मकाँ बदल रहें हैं हम..

ले लिया हैं हमनें खुद इक हिस्सा
पूछनें का काम रहा हैं
इतिहास का किस्सा..

उसके फैसलें अब उसके जैसे नहीं
बदल रही हैं रूहें
बदल रही हैं वो..

नितेश वर्मा

लो हो गया सौदा खतम

लो हो गया सौदा खतम
पूछा उसनें नाम
और मैनें कह दिया हम

नितेश वर्मा

क्यूं ले लिया हैं उसकें आगोश नें मुझे बाहों में

क्यूं ले लिया हैं उसकें आगोश नें मुझे बाहों में
आसमां बिखेर रहीं हैं किरण सूरज के सायों में

चलती-फिरती किताबों का मकबरा बना रखा हैं
कोई ये कह दे अब उनसे ना आयें मेरी राहों में

शहर के अपनें ये सारें तो परायों से हो गये हैं
ढूंढतें रहें जिस मकाँ को लूटें वो सारें आहों में

कबसे बोल दिया था जिसे मैं अब उसका नहीं
क्यूं लगता हैं जैसे वो बसे हैं मेरी निगाहों में

नितेश वर्मा

इक खामोशी में, इक बात लिये बैठा हूँ

इक खामोशी में, इक बात लिये बैठा हूँ
इस दिल पे मैं इक किताब लिये बैठा हूँ

वो कितना पूछतें हैं मुझसे ये पता मेरा
मैं साँसें उनके मुलाकात में लिये बैठा हूँ

नितेश वर्मा

Sunday, 9 November 2014

किस ओर ले चला हैं ये रस्ता मुझे

किस ओर ले चला हैं ये रस्ता मुझे
वो यूं रखता हैं बनाकर ज़स्ता मुझे

कहीं और जा के अँधेरें में ढूँढों मुझे
जो सब कहतें रहें थें यूं सस्ता मुझे

नाउम्मीद ही रहीं हैं वो बातें उसकी
डूबें रहें थें बतला के जो हँसता मुझे

इन्कार करके अभ्भी ज़ुर्म सह रहा
दिख रहा हैं हाले-दिल खस्ता मुझे

नितेश वर्मा

Saturday, 8 November 2014

उसे देखा हैं जो आँखों नें तो ख्याल आया हैं

उसे देखा हैं जो आँखों नें तो ख्याल आया हैं
उसके हर मलाल का मजबूर सवाल आया हैं

वो मुझसे अभ्भी पूछती हैं यूं निगाहें छुपाकर
ज़माना कहता हैं उसे कितना मज़ाल आया हैं

इस उँगलियों पे उससे गुनाहें गिनाकर आयें हैं
रोया हैं इस कदर की चेहरें पे जलाल आया हैं

धूल के बारिशों में ये दिल भी पिघल आया हैं
और वो कहती हैं की पत्थर हलाल को आया हैं

नितेश वर्मा

यूं तो कमरें के हर कोनें से कई सुराग मिलें

यूं तो कमरें के हर कोनें से कई सुराग मिलें
जैसे बहती गंगा में जलतें कोई चराग़ मिलें

थोडा-सा बस निखर के आया था परिणाम
लोग जल्दबाज़ी में जाकर हराम को मिलें

यूं टूट के चाहतें रहें जिस छावं को ता-उम्र
वो नफ़रतों के हवालें से सब बेईमान मिलें

हमारा नाम भी आया था दिलों में होनें का
बिन मर्ज़ी कहीं और बसे तो इंतकाम मिलें

इस ज़ुर्म की गुनाह अब कहाँ तक जाऐगी
वर्मा जो तुम्हारें ही नाम से ये नाम मिलें

नितेश वर्मा

Wednesday, 5 November 2014

चाहतें हैं रूह से,रूह तक तेरे हो जाएं

चाहतें हैं रूह से,रूह तक तेरे हो जाएं
साँसों से होकर,साँस तक तेरे हो जाएं

नहीं हैं बुनना ख्वाबों का समुन्दर इसे
दिल से लगकर,दिल तक तेरे हो जाएं

तू ही हैं बस इक मेरी जीनें की वजह
चाहत हैं यही,चाहत तक तेरे हो जाएं

के बाँध के बैठें हैं मुकम्मल पता तेरा
फैसला हैं की,फैसलें तक तेरे हो जाएं

अब छुपा के क्यूं रखा हैं चेहरा तुमनें
नज़र हैं के,ये नज़र तक तेरे हो जाएं

नितेश वर्मा

कातिल भी कोई ना समझे,उडा दिया हैं मैनें रखी धूल को

बस चुप-चाप तोड के रख दिया हैं मैनें वही उस फूल को
कातिल भी कोई ना समझे,उडा दिया हैं मैनें रखी धूल को

शर्मं किसी के भी तो आँखों में ना कभी आई थीं ऐ वर्मा
मैनें उल्झा दिया हैं चेहरा,रख-कर चेहरें पें इक भूल को

नितेश वर्मा

तेरी उँगलियों पे रक्खा बोझ

के लो चलो अब ये सफर खत्म हुआ
तेरी नर्म उँगलियों के बीच
फँसी मेरी सख्त उँगलियाँ
तेरी उँगलियों पे रक्खा बोझ
अब खत्म हुआ

सीनें से लगानें की अब जरूरत नहीं
मिट्टी का खिलौना था
मिट्टी में अब मिलनें चला
बहता था शायद किसी समुन्दर-सा
परिंदों का क्या पता
मैं तो अपना घर ढूँढनें चला

सब नाखुश आज भी मिलें
मय्यत पे शोर और लोग दफनानें चलें
टूटा दिल आज भी मेरा
मेरे अपनें भी मुझे अब मनानें ना निकलें
सही हुआ थक गया था
कहाँ तक दौडता इसीलिए मर गया था

के लो चलो अब ये सफर खत्म हुआ
तेरी नर्म उँगलियों के बीच
फँसी मेरी सख्त उँगलियाँ
तेरी उँगलियों पे रक्खा बोझ
अब खत्म हुआ!

नितेश वर्मा

लेके मेरे कत्ल का सामान मुझसे मिलें

सब बेरंग, बेमौत, बेइमान मुझसे मिलें
लेके मेरे कत्ल का सामान मुझसे मिलें

पूछ लिया ना-जानें मैनें कैसी दबी बात
अपनें ही सारें बेचारें हैंरान मुझसे मिलें

तंग बातें नहीं, तंग ये रिश्तें हो चले थें
उन शक्लों के आडें हैवान मुझसे मिलें

किसी और को कहाँ तक लेकर चलता
होके घर के कमरें बेजान मुझसे मिलें

बस इक ये तेरा ही उम्मीद बचा रहा हैं
वर्मा बनके जरूरत अंज़ान मुझसे मिलें

नितेश वर्मा




किसी रोज़ तो तेरी इन बाहों में होगें हम

के यूं बनके उदास, कब-तक भटकेंगे हम
किसी रोज़ तो तेरी इन बाहों में होगें हम

ये रास्ता अब ना तो तेरा हैं, ना ही मेरा
मिलके किसी रोज़, मंज़िल कह देंगे हम

तौबा किया हैं तो ये नाम भी ना लो मेरा
खातिर तुम्हारें, यूं ही दिल तोड लेंगे हम

मज़ाक हैं क्या आईना हर-वक्त अपना हो
तुम्हारी ये तस्वीर कहीं और पढ लेंगे हम

दो महज़ बातें, और साँसों की कसम दी हैं
भूल जाऊँ मैं वो चेहरा जिसमें रहतें हैं हम

बस फर्क इतना ही रह गया महबूब से मेरा
वर्मा ढूँढता था, वो जो शायद नहीं हैं हम

नितेश वर्मा



ना-जानें हैं किस बात पे ये रूका

..ना-जानें हैं किस बात पे ये रूका..
..ना-जानें किस बात को हैं ढूँढता..

..दिल मेरा अब मुझसे क्या कहता..
..अंदर जो खामोश सौ दर्द हैं सहता..

..तलाशूं जो वजहें तो तू हैं मिलता..
..बेकार की बातों से डर हैं लगता..

..नाराज़ तो सब यहाँ कौन डरता..
..कीमत की सज़ा मैं दूर ही रखता..

..नितेश वर्मा..

उनसे माँगी मेरी हर दुआ अधूरी रह गई

उनसे माँगी मेरी हर दुआ अधूरी रह गई
शायद खुदा की भी कोई मजबूरी रह गई

दो-दो गज़ नाप के मिली थीं मिट्टी यहाँ
मरनें के बाद यही एक बात पूरी रह गई

चरागों का दौर ही कुछ और था मुसाफिर
ढूँढनें आएं मकाँ तो मीलों की दूरी रह गई

अब हर अंजाम से हैं वाकिफ़ ये किनारा
लहरों ने सोचा समुन्द्र की मंज़ूरी रह गई

मैं तो खुद इस जिंदगी से परेशान हूँ वर्मा
खबर किसी और की बस कसूरी रह गई

नितेश वर्मा

ऐ ज़िन्दगी तुझसे अब डर लगता हैं

ऐ ज़िन्दगी तुझसे अब डर लगता हैं
मौत में ही मुझको यकीन लगता हैं
खाँमाखाहं!
ये रोज़ तुझे बचानें की तैयारी मेरी
इक बेचैनी, इक बेरहमी, इक मासूम
दिन-रात संवरती इक सरगोशी
मगर मुझे, तेरा
यूं ख्वाबों में आना हसीन लगता हैं
ऐ ज़िन्दगी तुझसे अब डर लगता हैं

कभी कहीं बिन तेरे हुआ कहाँ था मैं
साँसों से लेकर जाँ तक तेरी दुआ था मैं
बदली नहीं हैं अब तक तस्वीर तेरी
आवाज़ जितनी चाहें मैं बदलूं, लेकिन
हर-वक्त मुझमें रहा हैं जो तू
बात यें सच्ची कितना संगीन लगता हैं
ऐ ज़िन्दगी तुझसे अब डर लगता हैं

सफ़र दर सफ़र ये ज़िन्दगी चली थीं
छूटतें कभी तुम ये कहर ना बरसी थीं
हाथ ये
तुम्हारें ही हाथों में रखकर चले आएं
मौसमों को भी तो बडे बेदर्द से
यूं ही सर्द छोड आएं
मिलना मौत ही था दस्तूर-ए-ज़िंदगी
यूं ही बेवजह क्यूं किताबें पढतें आएं
खुद की ज़िंदगी मगर हीन लगता हैं
ऐ ज़िन्दगी तुझसे अब डर लगता हैं
मौत में ही मुझको यकीन लगता हैं

नितेश वर्मा

बदसलूकियों की भी हो रही कैसी रियायत हैं

बदसलूकियों की भी हो रही कैसी रियायत हैं
जलाई जा रही हैं बेटिया ये कैसी रियासत हैं

खून,अपराध,बलात्कार,धन्धें यूं ही हो रहें हैं
कत्ल का सामान और ज़िन्दगी किफ़ायत हैं

मन पे बोझ,ये मन बांवरा ही समझ पाया हैं
माँ की बेटी मरी, हो रही ये कैसी हिमायत हैं

कोई चाह नहीं चोट करकें रखूं ध्यान सबका
दफ़नाएँ जा रहें हैं अपनें ये कैसी हिफ़ाजत हैं

महज़ चन्द पैसों के खातिर बुझ रहीं हैं साँस
अब तो मरें भी बोल बैठे ये कैसी सियासत हैं

नितेश वर्मा

वो हमारें दिल से लग-कर सहारों में आ गए

हम भूलें जो बात वो सारें तो इशारों में आ गए
वो हमारें दिल से लग-कर सहारों में आ गए

था ना-जानें वो कोनें का कमरा उदास कब से
सूरज की पहली बाहों से वो बहारों में आ गए

ज़हर, ज़न्नत, जनाजा क्या नाम दूं मैं इसका
जब से गयें हो तुम हम तो मजारों में आ गए

तंग, परेशां हालत में ना-जानें कबसे रहें हैं वो
खिडकी खुली हैं जबसें वो तो नज़ारों में आ गए

नितेश वर्मा

इन्कार की सूरत नहीं मुहब्बत जरूरी नहीं

इन्कार की सूरत नहीं मुहब्बत जरूरी नहीं
चेहरा पराया ही सहीं मगर वो फरेबी नहीं

किश्तों में बाँधी यें रिश्तों की चलती आँधी
डूबा हैं सेहरा मगर होंठों पे यें जुबानी नहीं

नितेश वर्मा

बचा अब-तक उसका गुरूर कितना हैं

बचा अब-तक उसका गुरूर कितना हैं
पहल-इश्क में था तो सुरूर कितना हैं

दिल किसी के ना होनें तक ही रिहा हैं
गैर की बाहों में महबूब क्रूर कितना हैं

मिला हैं जो वो तो पैगाम भी लाया हूँ
कब्र पे उसकें यें मिट्टी हुज़ूर कितना हैं

खुद की स्याहीं से मुझे बुनाया जिसनें
बहन की आँखों में बचा नूर कितना हैं

तौलतें रहें थे ता-उम्र अँधेरें में आकर
सबेरा देखा बाप ये मजबूर कितना हैं

निहार के उसनें गला ही घोंट दिया हैं
ये पडोसी मुल्क भी नासूर कितना हैं

नितेश वर्मा

Ummed E Kashmir By Nitesh Verma

A tribute to #IndianSoldiers,Thanks for everything.
#UmmedEKashmir #HumHain

बचा अब-तक उसका गुरूर कितना हैं
पहल-इश्क में था तो सुरूर कितना हैं

निहार के उसनें गला ही घोंट दिया हैं
ये पडोसी मुल्क भी नासूर कितना हैं

नितेश वर्मा

Nitesh Verma Poetry

कब, किससे, कहाँ, कितना, क्यूं और कैसे बोलना हैं; यह एक इंसान के समझ में होना चाहिएं वर्ना उसके बाद उस इंसान के पास पछतावा करनें के सिवा और कुछ नहीं बचता।

नितेश वर्मा

दीवाली ये खुशियाँ लेकर आई हैं

आप सभी को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ। आप सभी का जीवन ऐसे ही जगमगाता रहें। शुभ-दीपावली।

चारों तरफ़ अब रौशनी छाई हैं
दीवाली ये खुशियाँ लेकर आई हैं

दीयें से खिली हर इक घर हैं
रंज़िशें कही दूर जा दफ़नाई हैं

सुख-शांति-समृद्धि सब आपकी हो
दिलों में यही चाह समाई हैं

लेकर उड गया मन बावरां कहीं
नफ़रतें-कुरीतियाँ दी आज़ जलाई हैं

सब अपनें साथ अपनों के रहें
यहीं तो सबकी अरजी कमाई हैं

नितेश वर्मा

अब ये ज़िन्दगी इक फासलों से गुजर रही हैं

अब ये ज़िन्दगी इक फासलों से गुजर रही हैं
बेकसक, बेअदब मौत मंज़रों से गुजर रही हैं

आँखों से हटा नहीं हैं पर्दा अब तक मेरे आकाँ
ये दुश्मनी हैं जो अब इक रिश्तों से गुजर रही हैं

दिल बेचैंन हैं तो हवा भी ना मिली हैं साँसों को
उल्फ़त के हैं जो मारें तो जाँ यूं हीं गुजर रही हैं

आँखों में शर्म अब किस बात की रहें अए वर्मा
जब हर तकलीफ़ों से ही ये ज़िंदगी गुजर रही हैं

नितेश वर्मा

इश्क में ना-जानें हम क्या-क्या कर आएं हैं

सारें ही बहानें अब तक वर्मा मैनें अपनाएं हैं
इश्क में ना-जानें हम क्या-क्या कर आएं हैं

दिल अपना ही कहीं इन अंधेरों में पडा रहा था
और ना-जानें इल्ज़ाम किस-किस के सर कर आएं हैं

नितेश वर्मा

वो कैसा हमदर्द हैं [Wo Kaisa Humdard Hai]

वो कैसा हमदर्द हैं
जो दे गया
मुझे बस दर्द हैं!

हवाएँ सर्द सी
चेहरा ज़र्द सा
चला था सब बस फर्ज़ सा!

तन्हा, उदास
था शायद वो मर्ज़ सा
ये ज़ुबां मेरा हैं बस दर्द का!

सुकूं अब कहीं नहीं
रहा कैसे
दिल मेरा ये खर्च सा!

टूटतें लफ़्ज़ बहकतें बातें
लिखता रहा कैसें
मैं भरा जोश गर्म सा!

टूट के बिखर गए अपनें सब
मगर
आँखों में दिखा नहीं कुछ शर्म सा!

नितेश वर्मा