Sunday, 23 November 2014

क्यूं ले लिया हैं उसकें आगोश नें मुझे बाहों में

क्यूं ले लिया हैं उसकें आगोश नें मुझे बाहों में
आसमां बिखेर रहीं हैं किरण सूरज के सायों में

चलती-फिरती किताबों का मकबरा बना रखा हैं
कोई ये कह दे अब उनसे ना आयें मेरी राहों में

शहर के अपनें ये सारें तो परायों से हो गये हैं
ढूंढतें रहें जिस मकाँ को लूटें वो सारें आहों में

कबसे बोल दिया था जिसे मैं अब उसका नहीं
क्यूं लगता हैं जैसे वो बसे हैं मेरी निगाहों में

नितेश वर्मा

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