Wednesday, 5 November 2014

ऐ ज़िन्दगी तुझसे अब डर लगता हैं

ऐ ज़िन्दगी तुझसे अब डर लगता हैं
मौत में ही मुझको यकीन लगता हैं
खाँमाखाहं!
ये रोज़ तुझे बचानें की तैयारी मेरी
इक बेचैनी, इक बेरहमी, इक मासूम
दिन-रात संवरती इक सरगोशी
मगर मुझे, तेरा
यूं ख्वाबों में आना हसीन लगता हैं
ऐ ज़िन्दगी तुझसे अब डर लगता हैं

कभी कहीं बिन तेरे हुआ कहाँ था मैं
साँसों से लेकर जाँ तक तेरी दुआ था मैं
बदली नहीं हैं अब तक तस्वीर तेरी
आवाज़ जितनी चाहें मैं बदलूं, लेकिन
हर-वक्त मुझमें रहा हैं जो तू
बात यें सच्ची कितना संगीन लगता हैं
ऐ ज़िन्दगी तुझसे अब डर लगता हैं

सफ़र दर सफ़र ये ज़िन्दगी चली थीं
छूटतें कभी तुम ये कहर ना बरसी थीं
हाथ ये
तुम्हारें ही हाथों में रखकर चले आएं
मौसमों को भी तो बडे बेदर्द से
यूं ही सर्द छोड आएं
मिलना मौत ही था दस्तूर-ए-ज़िंदगी
यूं ही बेवजह क्यूं किताबें पढतें आएं
खुद की ज़िंदगी मगर हीन लगता हैं
ऐ ज़िन्दगी तुझसे अब डर लगता हैं
मौत में ही मुझको यकीन लगता हैं

नितेश वर्मा

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