Wednesday, 18 September 2013

..हो गया यकीं इक मुझे मेरे होने पर..

..ज़िन्दगी हैं हैरां और बातें हैं परेशाँ..
..दिन हैं गुमशुदा और रातें हैं बेनाम..
..हालातें बनी हैं मेरी कुछ ऐसी..
..की जान के खुदा भी हैं अन्ज़ान..

..बस तरसती पत्तियाँ.. धीमी बहती हवाएँ..
..और सूनी राहों का मेरा सफ़र..
..यें ही हैं कुछ बने साथी मेरे..
..मंज़िलों पे हैं जो चले मिलाने मुझे..
..हो गया यकीं इक मुझे मेरे होने पर..
..इक तरफ तुम और तुम्हारी बातें..
..दूसरी तरफ मैं और मेरे अफसानें..!

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ज़िन्दगी_हैं_हैरां_और_बातें_हैं_परेशाँ.pdf

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