आखिर रक्खा ही क्या है मुझे तुम्हे बताने को..
चलों आज तुम्हें अवारें..ए..जिंदगी सुनाता हूँ..
तुम शायद वाखिब थे मुझसे.. मेरी आशिकी से..
रात..ए..जश्न कहीं और जमा रक्खा था..
हाथों मे जाम उल्फ़त के.. और लबों पे कातिल मुस्कान करके..
कायनात मेरी दिल पे जमा रक्खा था..
आई जो उस रात करीब मेरे तुम..
मेरी ख्वाहिशों ने अपनी आशियाँ संग तेरे जन्नत में सजा रक्खा था..
तू अचानक मेरी नजरों से दूर हो गया.. थाम के हाथ शायद अपने रकी़ब का..
मेरी हाथों मे इक बार फिर से सजा गए तुम..
किताब..ए..अवारगी हैवान का..
तड़पती गई.. तरसती गई.. आँखें मेरी..
तुमने अपना नज़र कहीं और जमा रक्खा था..
बसा लिया शायद तुमने मेरे नाम किसी और को..
मैंने तस्वीर को तुम्हारी अपने कमरों मे सजा रक्खा था..
क्या बताऊँ इक रात आया इल्जा़म सर मेरे..
मैंने उनका जीना हराम कर रक्खा है..
पैगाम आया अब तो दूर हो जाओ मेरी नजरों से तुम..
तुमने मेरा चलना हराम कर रक्खा है..
याँ खुदा! तुम्हे मौत भी रास आ जाए कभी..
नजरों के सामने मेरे उनका अरमां बिखरा रक्खा था..
हालातें देख मेरी.. परेशां रात मेरी..
अपने मे बसाने को हाथों सजाएँ मेरी ओर नजरें जमाएँ रक्खा था..
शायद..! कोई मुझे समझता नही..
इसलिए उस रात.. वो खिडकी से नजरें टिकाए मेरी..
मरने का इंतजार जमाएँ रक्खा था..!
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