Sunday, 18 August 2013

Hindi Poetry By Nitesh Verma


वो कुछ शर्मा से जाते है..
मुझे अपना कहते-कहते वो कुछ रूक से जाते है..
जुबाँ पे है बसा नाम हिन्दी का..
फिर भी उसे बोलने मे वो कुछ शर्मा से जाते है..
वो खुद से कुछ लड से जाते है..
पता ना खुद के वजूदो से अलग होके..
वो मुझसे क्या जताते है..?
हिन्दी है वजूद मेरी मै उसे क्युँ छोडूं..?
और तुझे छोड मै किसी और से क्युं जुडूं..?
बात सही है वो भी शायद जमाने से कुछ आगे जाना चाहते है..
लेकिन अपनो को छोड वो क्यूं जाना चाहते है..?
बात मेरी शायद उनेह अच्छी ना लगे..
लेकिन खुद से तो वो नज़रें मिला के तो देखें..
अपने गिरे-बाँ मे एक बार झाक के तो देखे..
हिन्दी मेरी है और तुम्हारी भी मेरे दोस्त इसे अपना बना के तो देखें..!



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