Friday, 28 March 2014

Nitesh Verma Poetry

[1] ..सँभालें कदम अब सँभलतें नहीं..
..गुनाह अब सर से हटते नहीं..
..किए हैं जो ज़ुर्म मैंनें इतने..
..किसी की दुआओ में भी..
..अब असर दिखते नहीं..!

[2] ..कोई कैसे सँभालेगा मेरे अवारगी को..
..मुहब्ब्त में मैंनें इंसा को बेचे हैं..!

[3] ..जरिया नहीं कोई अपराध कूबूलनें को..
..ऐ खुदा तेरे सज़दें में मैंनें..
..यूं ही सर झुका रख्खा हैं..!

[4] ..इश्क के नशे में मैंनें जो गुनाह किए हैं..
..इतने किए हैं कि..
..रब के अलावा कोई और सुनेगा नहीं..!

[5] ..दस्तूर मेरी ज़िन्दगी का..
..पढना इतना आसान भी नहीं..
..वक्त के ज़रिए जो मैंनें हुनर सीखे हैं..!

[6] ..अब क्या मौत में भी कुछ दूरी बाकी हैं..
..जो मैंनें ज़िन्दगी सँभाल के रख्खें हैं..!


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