Monday, 19 December 2016

यूं ही एक ख़याल सा..

मुझे नहीं पता है.. अब वो कहाँ है?
और ना ही अब मैं किसी मृगतृष्णा में जीता हूँ।
वो शायद अज़ीब थी!
या मैं ही ख़ुदमें उलझा हुआ था.. पता नहीं।
उसे मेरी बातें ज़हर लगती थी.. मेरा बोलना उसे पसंद नहीं था। मेरी शक्ल उसे चिढ़ाती थी.. लेकिन जहाँ तक मैंने उसे जाना था वो शराब नहीं पीती थी.. और ना ही किसी बात पर एकदम से चुप हो जाती थी.. धीरे-धीरे वो बदलने लगी थी बिलकुल उतना जितना के किसी डूबते हुए सूरज के साथ हवाएँ बदलने लगती हैं।
वो बहुत खूबसूरत थी लेकिन अज़ीब थी.. वो बातें बेतरतीब किया करती थीं जिनका कोई मतलब नहीं हुआ करता था.. उसकी बातें अक्सर मुझे परेशान भी करती थी मगर वो अक्सर कहा करती.. मुझे इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। मुझे अपने कंधों पर सर रखकर रोने भी देती.. कभी यकायक सीने से भी लगा लेती। वो मुझे पागल बुलाया करती थी.. हालांकि पागलों सी हरकतें उसकी सारी थी। वो उलझी हुई रहती थी मगर ख़ुदको हमेशा सुलझा हुआ दिखाती थी।
मुझे उसकी इसी बनावटी दिखावे से अक्सर चिढ़न हुआ करती थी.. कई बार मैंने ये ज़ाहिर भी किया था.. मगर वो मुझसे इसके लिए कभी लड़ती नहीं थी.. उसकी इसी बात पर मैं उससे अक्सर हार जाया करता था। एक दिन मेरा उसपर ये ज़ालिम हाथ भी उठ गया.. फ़िर ये बातें रोज़ की होने लगी.. ये रोज़ का So Called Drama.. शायद उसे बिलकुल भी पसंद नहीं आया।
फ़िर..
इक रोज़ वो मुझसे दूर चली गई.. दूर.. बहुत दूर.. इतनी दूर कि अब..
मुझे नहीं पता है.. अब वो कहाँ है?

नितेश वर्मा

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