Monday, 19 December 2016

तुम्हें याद आता है कुछ

तुम्हें याद आता है कुछ
वो बिताए हँसीं रात के लम्हे
जब मिल बैठती थी
हमारी निगाहें कई सवाल लेकर
जब चाँद आधा बादलों से निकलकर
फैल जाता था सुदूर ज़मीन पर
जब टकटकी लगाएँ हम देखते थे
चाँद पर चढ़ते किसी तारे को
जब शाम की जलती पुआल
धुँए में ग़म जो उड़ा ले जाती थी
जब तुम लिपट जाती थी सीने से
आँख में धुँए के जाने के बहाने से
मैं पूछता था जो वज़ह तुमसे
तुम और लिपट जाती थी सीने से
तुम्हें याद आता है कुछ
तुम्हें याद आता है कुछ

दिन में होते उजाले पर
जब ओस आकर चिपकती थी
जिस्म जब लिहाफ़ बनकर
सीने में आज़ाद हो जाती थी
उठता था जो बहसों का सिलसिला
तुम जब लड़ जाती थी मुझसे
जब तुम्हारी नाज़ुक उंगलियां
उलझी जुल्फों को संवारती थी
लट जब उलझकर गिरते थे
नर्म गुलाबी से उस होंठ पर
तुम झटककर जब सो जाती थी
मेरे कांधे पर रखकर अपना सर
मैं डूब जाता था उन आँखों में
तुम मूंद लेती थी जब उनमें मुझे
एक कश्ती गुजरती थी फ़िर
कई शाम हमारे तमाम शहर में
तुम्हें याद आता है कुछ।

नितेश वर्मा
#Niteshvermapoetry

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