Monday, 19 December 2016

क़िस्सा मुख़्तसर : मोआशरा

आज जो भी हालात है मोआशरे में उसका ज़िम्मेदार कौन है? जवाब बहुत आसान है अगर हम इस बात को मान ले तो- हम ख़ुद!
हम ख़ुद ही हैं जो मुल्क को चलाने के लिए जिन नेताओं को Vote करते हैं वो बदकिस्मती से ज्यादातर अँगूठा छाप होते हैं। एक सस्ता सा उदाहरण ले ले तो कुछ आसान हो जाएं-
एक लड़का है.. जिसके परिवार वाले १५ लाख रुपये देकर उसे नौकरी पर लगाते है और बाद में ऊपरवाले की मेहरबानी देकर नियाज़ी बनते है, लेकिन वो बदकिस्मत ये कभी नहीं सोचते की उन्होंने किसी का हक़ मारा है।
एक वाक्या सुनिये.. कोई कहानी नहीं है इसमें.. ये एक कड़वा सच है जिसका घुँट हमारे जैसे ही लोग हर रोज़ पीते हैं.. ख़ैर, सुनिये..
हमारे यहाँ एक चचा हुआ करते थे। चचा सिद्दीकी.. नाम था उनका। पाँच वक़्त के नमाज़ी थे। हज़ किया करते थे। लोग पाकीज़गी और हलाल में उनकी कसमें खाया करते। चचा सप्ताह में एक बार आते ही आते थे। दीन की बातें करते.. ताबीज़-टंटो की बातें करते। अल्लाह के मेहरबान होने के क़िस्से सुनाते.. ऐसा समझिये की वो जब भी मिलते हमें लगता हम किसी फ़रिश्ते से मिल बैठे हैं।
एक दिन मैं चचा से मिला.. चचा का मूड कुछ ख़राब था उन्होंने मुझे झटक दिया और मेरे पापा से लगे कहने- इसे कभी बताया है तुमने.. ये क्यूं यहाँ आता है? क्या मिलाद है इसकी? आपने कभी बताया है कि मैं करता क्या हूँ?
ये सब सुनकर तो मेरा दिमाग़ बिलकुल ख़राब हो गया। दिन-भर मैं परेशान रहा शाम को जब पापा आएँ तो मैंने उन्हें बिठा लिया और सवाल किया- ये चचा सिद्दीकी करते क्या है? दिन-भर वो घूमते फ़िरते है लेकिन फ़िर भी इनके घर वो सब चीज़ मुहैया है जो कि एक अफ़्सर आला के घर में होता है।
पापा ने जब मेरा सवाल सुना तो मुझपर गुस्सा हो गए.. कहने लगे- क्या बहकी-बहकी बातें कर रहे हो? लगता है तुम्हारे चचा ने तुम्हारी कान भरी है।
मैंने कहा मुझे नहीं पता.. मैंने आपसे एक सवाल किया है आप उसका जवाब दे दे बस! अग़र चचा ने मेरी कान भरी है तो आप मेरी सवाल का जवाब देकर मेरी तसल्ली करें।
पापा ने उस दिन डाँट-डपटकर मुझे भगा दिया लेकिन मैं कहाँ मानने वाला था अगले दिन फिर शाम को मैंने उन्हें बिठा लिया फ़िर वही सवाल कर दिया कि- ये चचा सिद्दीकी करते क्या है?
पापा ने देखा कि अब कोई उपाय नहीं बचा तो उन्होंने बताया- कि तुम्हारे चचा रेलवे में काम करते है.. हर ६ महीने में एक बार वो वहाँ जाते हैं और अपनी सारी हाज़िरी बनाते हैं.. ४०% Railway Superintend को देते है और बाक़ी का माल लेकर यहाँ चले आते हैं।
मैंने जब ये सुना तो मेरे कान से धुँए निकल गए। मतलब वो आदमी उस हराम के पैसे से हज़ भी करता है और ख़ुदको सच्चा इस्लामी भी बताता है? जो इंसान हमें ये बताता आया रहा है कि नमाज़ पढ़ने के लिए पाकीज़गी से ज्यादा अहमियत उसके हलाल होने से है और वो ऐसी कमाई पर ख़ुद ज़िंदा रहता है।
अब क्या हाल होगा इस मोआशरे का इससे बेहतर और कुछ नहीं ना? जहाँ तारीख़ियाँ झूठ की नींव पर रख दी जाएं उस मुल्क का हाल इससे बेहतर और कुछ नहीं हो सकता।

नितेश वर्मा

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