Sunday, 31 May 2015

कितनी जुबां लगा बैठा हैं वर्मा

उदास चेहरा कुछ बतानें को हैं
दिल मेरा शायद दुखानें को हैं

वो अदा हैं निगां को छुपाने का
ये वो नहीं के हमें भूलानें को हैं

हार जाता हैं ये तुम्हारें आगे आ
ये आईना तुम्हें समझानें को हैं

क्यूं ताउम्र फासलों का सफर हैं
कोई ख्याल उसे मिटानें को हैं

आ-आ कर लग जाती हैं गले वो
शायद मुझे अपना बनाने को हैं

हम तो फिरतें रहें तंग गलियोंमें
और बैठें वो यूं घर सजानें को हैं

नहीं समझ रहा हाल-ए-दिल वो
जो मेरी बाहों में यूं समानें को हैं

कितनी जुबां लगा बैठा हैं वर्मा
दर्द अब तो मरहम लगानें को हैं

नितेश वर्मा

Saturday, 30 May 2015

दोनों का सफर

दोनों का सफर बस कुछ लम्हों का था। कौन जानता था यूं ही रिश्तें बिखर जाऐंगे, बिन जिसके एक लम्हा भी दुस्वार लगता था उसके बिना ये पहाड सी ज़िन्दगी कैसी गुजरेगी। वो उम्मीदों पे खडा उतरना चाहता था तो उसकी उम्मीदें उससे बेहिसाब ही हुआ करती थीं, वो उसके सपनों को बुनना चाहता था तो वो उसको अपनी ख्वाब मानती थीं, वो उसके साथ जीना चाहता था तो वो उसमें जीना चाहती थीं।

मुहब्बत कुछ हद से ज्यादा ही जब करीब हो जाएं तो कडवाहट, परेशानियाँ या फिर यूं कहें की वो रूसवाईयों का रूप ले लेती हैं। समझना बहोत पेंचिदा सा हो जाता हैं, रिश्तें बहोत नाजुक होतें हैं अगर उन्हें जोर से अपनी तरफ खींचों तो हाथ कट जाती और हल्का छोड दो तो उल्झ जाती हैं इसलिए तो हम रिश्तों को डोर से कहा करतें हैं। दिल बहलाना अगल वाली बात हैं और दिल में बसाना अलग। उन्हें भी शायद इन बातों का तनिक भी होश ना था, हाँ ख्यालें बरहाल उनमें जिंदा रहती थीं मगर ख्यालें तो बस ख्वाब में हुआ करती हैं उनका वास्तविक ज़ीवन से कोई संबंध नही होता।

नितेश वर्मा

Friday, 29 May 2015

लाशें कफन रखके जो भूल जाते हैं

कुछ याद करके कुछ भूल जातें हैं
सबक ऐसे फिर भी स्कूल जाते हैं

हम ख्वाब की बात करते रहते हैं
तो आँखों में जानें क्यूं धूल जाते हैं

सबकी दुआओं की सुनवाई की हैं
यूंही नहीं वहाँ लेके सब फूल जाते हैं

आज उन सबका हिसाब होना ही हैं
लाशें कफन रखके जो भूल जाते हैं

नितेश वर्मा

मौत मुझे क्यूं यूं खुरदुरा करतें हो तुम

तमाम अशआर को पूरा करतें हो तुम
फिर क्यूं मुझे यूं अधूरा करतें हो तुम

बिखरी सी ही मैं तुम्हें लगती थीं ना
अब क्यूं जुल्फों को जुडा करते हो तुम

ज़िन्दगी को कितना अलग कर दिया
मौत मुझे क्यूं यूं खुरदुरा करतें हो तुम

लिखा मैनें जो औकात का हिसाब था
समेटनेंवाले को क्यूं बुरा करतें हो तुम

आज भी लौट आनें को वो तैयार रहा हैं
जिसके लिये खुदको कडा करते हो तुम

नितेश वर्मा

लब पर आकर लफ्ज़ जो रुक जातें हैं वर्मा

इस आगोश में हैं के दो दिल जल जाऐंगे
मत पूछ ये के जानें कितनें याद आऐंगे

हौलें से हाथों को उसनें यूं चूम लिया था
जानें कब तलक तक जान से यूंही जाऐंगे

परदा कर के बैठनें को हैं वो हमनशीं तो
और जानें इल्जाम कब तक हमसे करवाऐंगे

लब पर आकर लफ्ज़ जो रुक जातें हैं वर्मा
यहीं हर-वक्त दिली बोझ हमपे रह जाऐंगे

नितेश वर्मा 

Wednesday, 27 May 2015

करीब आ मुझे तुमसे प्यार करना है

आहिस्ता सा ये इक इजहार करना है
करीब आ मुझे तुमसे प्यार करना है।

नितेश वर्मा

शिकायतें, शर्तें अब उनसे कितनी रक्खूं

शिकायतें, शर्तें अब उनसे कितनी रक्खूं
दिलहारें बैठे आरज़ू उनसे कितनी रक्खूं

वो चले एक कदम भी उनकी मर्जी से है
अब हालातें गुजरते उनसे कितनी रक्खूं

नितेश वर्मा और शिकायतें

नितेश वर्मा और ज़िन्दगी

इन ज़िन्दगी की उदासियों से हैंरान रहता हूँ। हर वक्त क्यूं मेरें हिस्सें में ये, किस्मत का मारा हुआ सा लगता हूँ। कभी किसी पे ऐतबार ना हुआ और ना किसी का यकीं कभी जीत सकां। बहोत ही कमजोर सी डोर बँधी हैं, ज़िन्दगी और मौत दो रूख भले से ही हो, मगर होतें हर-पल दोनों करीब ही हैं। कहानियों का तस्वीर ले लेती हैं ये ज़िन्दगीयाँ, खुद में उल्झी हुई कुछ और सुलझानें की कोशिश करती हैं।

एक मुश्किलात हैं ये ज़िन्दगी। समझ के कभी बहोत करीब तो कभी जैसे खुदा हो जाती हैं, जो मिलनें को तो तैयार हैं मगर अपनें शर्तों पर, अपनें मर्ज़ी से। कुछ पल को ऐसे हो जाता जैसे बस सवालें ही सवालें नजर आतें हैं, लोगों की नजरें कही आकर मुझपे ही रूक जाती हैं, जैसे कुछ कहनें-सुननें को उतारूं हो। तस्वीर बदलती हैं ज़िन्दगीयाँ नहीं, अगर बदल भी जाएं तो ख्वाबों की तरह हसीन नहीं होती। उनकी जुबां अलग ही होती हैं ना कुछ समझती हैं और ही समझानें में यकीं रखती हैं।

रिश्तें नाजुक से होतें हैं, लम्हें अगर उन्हें ना समेटे तो वो बहोत दूर निकल जातें हैं। ज़िन्दगी वो उल्झती सी नाव की डोर हैं जो कभी समुन्दर की लहरों से परेशां रहती हैं तो कभी धूप की तपीश से और इसी उदेड-बुन में एक दिन टूट जाती हैं और सब एक पल में ही बर्बाद हो जाता हैं।

कौन समझायें इस कहानी को
उल्झी पडी इस दर्द जुबानी को।

नितेश वर्मा और ज़िन्दगी

Friday, 22 May 2015

वो तकलीफें छुपा के सब बोल लेता हैं

वो तकलीफें छुपा के सब बोल लेता हैं
वो मेरे जैसा हैं इंसा दिल खोल लेता हैं

अखबारी वो शख्स कितना बिखरा हैं
मग़र झूठ हो जहा जुबां खोल लेता हैं

परिन्दा हर वक्त आसमां का हुआ हैं
फिरभी मकां को ले कुछ बोल लेता हैं

हैं वो भी यूं तो हादसे का शिकार वर्मा
रखता हैं कद जहा जमीं तौल लेता हैं

नितेश वर्मा

Tuesday, 19 May 2015

वो इंसा हैं जो कुछ और करनें को तैयार हैं

जो पढ रहा हैं और और पढनें को तैयार हैं
वो इंसा हैं जो कुछ और करनें को तैयार हैं

किसे नही करना होता इनका हिसाबी-किताब
ज़िन्दगी हैं ये यहाँ सब लडने को तैयार हैं

थक-हार के बैठना कितना आसान होता हैं
मग़र बात हैं जो दो कदम चलनें को तैयार हैं

धडकनों की आहट से भी घबरा जाता हैं
किसान जो बारिश से लडनें को तैयार है

नितेश वर्मा

अपनी जुल्फों की परेशानियों को पढा करते हैं

अपनी जुल्फों की परेशानियों को पढा करते हैं
वो अभ्भी कितनी नादानियों को करा फिरते हैं

दिल संभाल के चुपचाप रख दिया हैं पास उनकें
दूर होकर हम सब बदनामियों को सहा करतें हैं

उनके लब पे आकर यूं ज़िक्र मेरा ठहर जाता हैं
वो तो यूं ही इन बदमाशियों को करा फिरते हैं

बदल गयी हैं अब तो सारी किताबें आशिकी की
था कहीं लिखा पन्नें कहानियों को पढा करते हैं

हसीन चेहरा उनसा अब कोई भला क्यूं हो वर्मा
हम तो आँखों की उन बेताबियों को पढा करतें हैं

नितेश वर्मा

Nitesh Verma Aur Aashiqi

एक वक्त होता हैं जब ये दिल आशिकी में होता हैं। गर्मी भी सुहावना सा लगता हैं.. ठंड में बहती पूरवाई भी दिल को आंन्दित कर जाती हैं। उसका ख्याल भी बस एक अजीब सा सुकूं दे जाती हैं। दिल को एक नयी आसमां मिल जाती हैं.. दिल एक हठ पे हो जाता हैं उडनें को जी चाहता हैं.. जैसे कोई पंख-सा लग गया हो और देखनें वालें कहतें हैं आवारा हैं।

दिल सब समझता हैं लेकिन अब उनको क्या समझाना.. जो हो रहा हैं दिल का हाल सबको अब क्यूं बताना। मुझे उसका हर-पल इंतजार रहता हैं.. इक ख्याल रहता हैं.. शायद उसे भी कुछ ऐसा ही होता हैं.. बताना शायद उसकें हक में नहीं.. लेकिन उसका यूं ही गुम रहना मुझे और परेशान करता हैं।

लोग कहतें हैं कहाँ लगा पडा हैं.. जब होना होता तो तेरी कब की हो जाती.. वो कहतें हैं ना कभी-कभी बस एक पल ही काफी होता हैं किसी को जान लेनें को और कभी इक उम्र गुजर जाती हैं। मेरा भी हाल कुछ ऐसा ही हैं.. समझ नहीं आता किस दौर से गुजर रहा हूँ.. शायद आज भी आशिकी दरों-दीवारों से बंधित हैं.. निकलना चाहती हैं.. इक आवाज लगाना चाहती हैं.. लेकिन शायद अब कोई गुंजाईश नहीं.. इक हद पे आके जैसे कहानियाँ रूक जाती हैं.. पात्र बिगड जातें हैं.. वैसे आशिकी भी ठहर जाती हैं।

कौन सा उम्मीद नजर आएं मुझको
हर-पल तू ही तू नजर आएं मुझको

नितेश वर्मा

Sunday, 17 May 2015

किसको मय्यसर हैं इस जहां में सुकून-ए-नींद दो पल

कैसी मजबूरी और ना-जानें क्यूं हम बिगडतें चले गए
लाख चाहां उसनें हमें और हम उससे गुजरतें चले गए

खुदखुशी का फैसला करके लौट आया था ज़िंदगी को
मरना नहीं चाहतें थें तो हरकतें सब सुधरतें चले गए

किसको मय्यसर हैं इस जहां में सुकून-ए-नींद दो पल
तंग-ए-हालत में सब गुमाने होश और इतरतें चले गए

मेरी हर आवाज़ में शोर हो जाती हैं खिलाफत हैं ये तो
मगर किनसे कहें दिल-ए-हाल सब बिछडतें चले गए

लाखों कोशिश जतन-ए-एतिहात बरत के देख लिया
न-जानें कैसा था वो सायां मेरा सब संभलते चले गए

नितेश वर्मा

Saturday, 16 May 2015

खुदमें खुद को इक किताब कर लिया तुमनें

जब सही गलत का हिसाब कर लिया तुमनें
खुदमें खुद को इक किताब कर लिया तुमनें

बागों में लगाकर फूल-सा लौट आये थें सब
देकर उनको पानी यूं ईजाब कर लिया तुमनें

आँखों से पढ रहें थें कबसे वो बेजुबां मुझको
परिन्दों को देकर पर गज़ब कर लिया तुमनें

मैं ही नहीं कह रहा हूँ अकेला के ये फरेब हैं
जब मुझसे हटाकर नजर कही और कर लिया तुमनें।

नितेश वर्मा

Friday, 15 May 2015

हादसों के हवालें से गुजर रही हैं ज़िन्दगी

हादसों के हवालें से गुजर रही हैं ज़िन्दगी
तुमनें ये देखा नहीं सुधर रही हैं ज़िन्दगी

तकलीफ क्या बस उसको ही हैं इश्क में
हमारी तरफ भी बेसबर रही हैं ज़िन्दगी

परिंदे की पर की ख्वाहिश अब हमें भी हैं
खामियों से ही ये बेकबर रही हैं ज़िन्दगी

हालात बता के अब वो ठग लेता हैं मुझे
ये इतनी परेशां क्यूं कर रही हैं ज़िन्दगी

कोई नहीं सुनेगा इन कहानियों को वर्मा
अफवाहों से ही दर-बदर रही हैं ज़िन्दगी

नितेश वर्मा








Wednesday, 13 May 2015

Nitesh Verma Poetry

खुद से समझौता करके बैठ गया
जो कभी तेरे खातिर मरा करता था।

नितेश वर्मा

उसे मुझसे उम्मीद ही कितना था
साथ मेरा और शहर कही और था।

नितेश वर्मा

हालातें बदली हैं, ज़िन्दगी नहीं

हालातें बदली हैं, ज़िन्दगी नहीं। शिकायतें हैं कोई दुश्मनी नहीं, बस समझाया नहीं जा सकता .. के उसे भूलाया नहीं जा सकता। बातें आज बडी-बडी सी हैं, ग़म हैं, रूसवां हैं दिल और भी बहोत कुछ लफ्जों में सब पिरोयां नहीं जा सकता।
बस महसूस होती हैं, आँखें रोती हैं, जुबाँ तरसती हैं इक हल्की सी थकान हैं आज। ज़िन्दगी कितनी मुश्किल होती जा रही हैं हर रोज़। बस इतना ही आज काफी हैं, कल फिर आऊँगा।
शुभ रात्री

नितेश वर्मा

मगर बिगड़ना मुझे उसका अच्छा लगता हैं

बदलने को और भी चीज़ें बदल सकती हैं
मगर बिगड़ना मुझे उसका अच्छा लगता हैं

नितेश वर्मा और बिगड़ना

आज याद माँ की आयीं तो आँखें भर गई

कौन आ के पढ जाता हैं खामोशियाँ मेरी
आज याद माँ की आयीं तो आँखें भर गई

सुनता नहीं है ये दिल कभी मेरी बेताबियाँ
माँ ने ये देखा तो मेरी जुल्फें सुलझाने लगी

नितेश वर्मा और माँ


Nitesh Verma Poetry

उसका इंतजार क्यूं हर वक्त इस दिल को हैं
वो मेरा नहीं फिर भी परेशां ये दिल उसको हैं

नितेश वर्मा

हर वक्त को पीछे छोड़ आये हैं हम
उनसे वो हर रिश्ता तोड़ आये हैं हम
अब शायद जा के कुछ सुकून मिले
जिंदा था जो जिस्म जला आये हैं हम।

नितेश वर्मा और सुकून

इस तकलीफ से गुजर रही हैं जिन्दगी
जाने क्यूं रोज खर्च हो रही हैं जिन्दगी।

उसने तो चाहा था खुद में समेटना मुझे
मैं लड़ता रहा कहके ये मेरी हैं जिन्दगी।

नितेश वर्मा और जिंदगी

Monday, 4 May 2015

मुझको अपना तो कर लो

अब बस खामोशियाँ बोलती हैं वो नहीं.. तन्हाईयाँ ही मेरे हिस्से हैं यहीं तो मेरे एक किस्सें हैं.. किसको ये बताना हैं और किससे छुपाना.. किसे दिखाना हैं और किससे एतराज़ जताना हैं..

दिल का हाल यहीं हैं.. अब क्या समझना और क्या समझाना हैं.. बस यूहीं ये ज़िन्दगी गुजर रही हैं.. और गुजर रहा हूँ मैं..

बस इतना तो समझ लो
मुझको अपना तो कर लो

नितेश वर्मा

Sunday, 3 May 2015

पारस में अकड कभी कहाँ था

उसनें बस इतना ही कहा था
तुमसे मुहब्बत कभी कहाँ था

मैं इक परिंदा आसमानों का
मुझे वो सुकून कभी कहाँ था

मिट्टी मुझसे लग सोना हुआ
पारस में अकड कभी कहाँ था

वो यूं मुझे बदनाम करता रहा
ज़मानें में ये दम कभी कहाँ था

नितेश वर्मा