Sunday, 31 May 2015

कितनी जुबां लगा बैठा हैं वर्मा

उदास चेहरा कुछ बतानें को हैं
दिल मेरा शायद दुखानें को हैं

वो अदा हैं निगां को छुपाने का
ये वो नहीं के हमें भूलानें को हैं

हार जाता हैं ये तुम्हारें आगे आ
ये आईना तुम्हें समझानें को हैं

क्यूं ताउम्र फासलों का सफर हैं
कोई ख्याल उसे मिटानें को हैं

आ-आ कर लग जाती हैं गले वो
शायद मुझे अपना बनाने को हैं

हम तो फिरतें रहें तंग गलियोंमें
और बैठें वो यूं घर सजानें को हैं

नहीं समझ रहा हाल-ए-दिल वो
जो मेरी बाहों में यूं समानें को हैं

कितनी जुबां लगा बैठा हैं वर्मा
दर्द अब तो मरहम लगानें को हैं

नितेश वर्मा

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