Sunday, 17 May 2015

किसको मय्यसर हैं इस जहां में सुकून-ए-नींद दो पल

कैसी मजबूरी और ना-जानें क्यूं हम बिगडतें चले गए
लाख चाहां उसनें हमें और हम उससे गुजरतें चले गए

खुदखुशी का फैसला करके लौट आया था ज़िंदगी को
मरना नहीं चाहतें थें तो हरकतें सब सुधरतें चले गए

किसको मय्यसर हैं इस जहां में सुकून-ए-नींद दो पल
तंग-ए-हालत में सब गुमाने होश और इतरतें चले गए

मेरी हर आवाज़ में शोर हो जाती हैं खिलाफत हैं ये तो
मगर किनसे कहें दिल-ए-हाल सब बिछडतें चले गए

लाखों कोशिश जतन-ए-एतिहात बरत के देख लिया
न-जानें कैसा था वो सायां मेरा सब संभलते चले गए

नितेश वर्मा

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