Wednesday, 27 May 2015

नितेश वर्मा और ज़िन्दगी

इन ज़िन्दगी की उदासियों से हैंरान रहता हूँ। हर वक्त क्यूं मेरें हिस्सें में ये, किस्मत का मारा हुआ सा लगता हूँ। कभी किसी पे ऐतबार ना हुआ और ना किसी का यकीं कभी जीत सकां। बहोत ही कमजोर सी डोर बँधी हैं, ज़िन्दगी और मौत दो रूख भले से ही हो, मगर होतें हर-पल दोनों करीब ही हैं। कहानियों का तस्वीर ले लेती हैं ये ज़िन्दगीयाँ, खुद में उल्झी हुई कुछ और सुलझानें की कोशिश करती हैं।

एक मुश्किलात हैं ये ज़िन्दगी। समझ के कभी बहोत करीब तो कभी जैसे खुदा हो जाती हैं, जो मिलनें को तो तैयार हैं मगर अपनें शर्तों पर, अपनें मर्ज़ी से। कुछ पल को ऐसे हो जाता जैसे बस सवालें ही सवालें नजर आतें हैं, लोगों की नजरें कही आकर मुझपे ही रूक जाती हैं, जैसे कुछ कहनें-सुननें को उतारूं हो। तस्वीर बदलती हैं ज़िन्दगीयाँ नहीं, अगर बदल भी जाएं तो ख्वाबों की तरह हसीन नहीं होती। उनकी जुबां अलग ही होती हैं ना कुछ समझती हैं और ही समझानें में यकीं रखती हैं।

रिश्तें नाजुक से होतें हैं, लम्हें अगर उन्हें ना समेटे तो वो बहोत दूर निकल जातें हैं। ज़िन्दगी वो उल्झती सी नाव की डोर हैं जो कभी समुन्दर की लहरों से परेशां रहती हैं तो कभी धूप की तपीश से और इसी उदेड-बुन में एक दिन टूट जाती हैं और सब एक पल में ही बर्बाद हो जाता हैं।

कौन समझायें इस कहानी को
उल्झी पडी इस दर्द जुबानी को।

नितेश वर्मा और ज़िन्दगी

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