Friday, 27 November 2015

दीवारों के बंद हो जाने से

दीवारों के बंद हो जाने से
ना रूकती है साँसें रोकें जाने से
वो अलसायी दोपहरिया हैं
मेरे खेत, मेरे गाँव की बगानों से
पूछती है शहरों में लड़कियाँ ये
आती हैं घुटन क्या रोशनदानों से
पता है उन्हें क्या वो बेरहम है
मसला यही है बड़े खानदानों से
टूटकर बिखर गया आखिर तू भी
पत्थर जो निकला था चट्टानों से
न है पता ये मंजिल मिलेगी कब
चल रहे है फिर भी पूरे जानों से
तुम बेखौफ जीयो जिन्दगी को
नहीं मानता है कुछ भी मनाने से
दीवारों के बंद हो जाने से
ना रूकती है साँसें रोकें जाने से।

नितेश वर्मा

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