Friday, 27 November 2015

ज़ख्म फिर से कुरेदें गये हैं

ज़ख्म फिर से कुरेदें गये हैं
हर घाव बिन मरहम के हैं
फिर से
खूनी खंजर चलाये गये हैं
मासूम आँखें जलाये गये हैं
चीखें, चीत्कारें फिर से
फिर से कत्लों का तमाशा
खून-खराबे फिर से
फिर से प्रचंड मजहबी बातें
फिर से शक्लों पे दाग
फिर से वहीं एक बीती बात
अंधी दुनिया, बेचारी समाज
हैं सड़कों पर रक्त-प्रवाह
जाने क्यूं
फिर से हम सताये गये हैं
ज़ख्म फिर से कुरेदें गये हैं।

नितेश वर्मा और फिर से।

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