Saturday, 26 December 2015

एक ख्वाहिश मुझमें खामोश रहती है

एक ख्वाहिश मुझमें खामोश रहती है
देखकर तुझे ना यूं कोई होश रहती है।

कुछ कहना चाहता था बरसों से तुमसे
मगर हाल हर वक़्त मदहोश रहती है।

हिसाबों किताब का जिक्र होगा तुमसे
फिलहाल तो जिगर ये बेहोश रहती है।

तुम जिस्म के हर सिहरन में रहती हो
जो उठे कोई बात तुम निर्दोष रहती है।

नितेश वर्मा और रहती है।

एक शाम गुजांइश की

एक शाम गुजांइश की
जिसमें होंगे
सम्मिलित कुछ किस्से
कुछ अधूरे.. कुछ पूरे
कोई ख्वाब चलकर आयेगी
कोई ग़ज़ल सुनायेगी
मिट जायेंगे विवाद सारे
परस्पर जब मिल जायेंगे
लबों से लफ्जों लब हमारे
गम-ओ-शिकवों से दूर
एक शीतलता से मदहोश
कोई होश जब ना ठहरेगी
सामने आँखों के तुम होगी
उस शाम के कोहरे में
जहाँ धुंधों में तुम होगी
बात होगी फरमाइश की
होगी जब
एक शाम गुजांइश की।

नितेश वर्मा और एक शाम।

कारगर नहीं है कुछ भी.. कुछ भी..

कारगर नहीं है कुछ भी.. कुछ भी..
जो नजरों से बयाँ हो कभी
शाम शहर में, दीवानों की भीड़ में
किसी ख्वाहिशों की ओट में
तुम्हारी जिक्रों-ख्यालों में
स्याह की तस्वीर में.. कालिख से
पुते दो संग-ए-मरमर जिस्म की
दास्तान अभी सारी अधूरी सी है
बात रह गयी पास जो पूरी सी थी
बस होके अब ये जाँ अधूरी सी है
कारगर नहीं है कुछ भी.. कुछ भी..

नितेश वर्मा

Wednesday, 23 December 2015

लबों की सरगोशियाँ समझाने को है

लबों की सरगोशियाँ समझाने को है
इश्क तुमको और पास बुलाने को है।

जो फिसल रहा हैं जिस्म पे तुम्हारें
वो चंद उंगलियाँ तो बहलाने को है।

मुहब्बत यूं एक ठहरी प्यास सी है
वो दरिया मुझमें भी समाने को हैं।

नहीं दूर हैं मुझसे निगाहें भी तेरी
कोई शक्ल बे-वक्त दुहरानें को है।

हैं शाम भी मुतमईन यूं इंतज़ार में
मंज़िल ये आखिर मिल जानें को है।

नितेश वर्मा

Monday, 21 December 2015

गुम हो गयी हैं तस्वीरों में जिक्र तुम्हारी

गुम हो गयी हैं तस्वीरों में जिक्र तुम्हारी
अब नहीं है याद मुझे वो शक्ल तुम्हारी।

समुंदर की लहरों पर सब्र का हिसाब है
बेहिसाब फिर क्यूं मुझपे इश्क़ तुम्हारी।

ये तकलीफ़ भी अब मझदार होने को है
मेरी हर नाव पड़ी है यूं कर्ज़ में तुम्हारी।

कर दो एक और एहसान इस जिस्म पे
गले लग जाओ उतर जाये रोग तुम्हारी।

मैं सायों के धुंधलके में ये ढूंढता हूँ वर्मा
कोई ख्याल लग जाये राख की तुम्हारी।

नितेश वर्मा


Sunday, 20 December 2015

मुनासिब नहीं है इश्क़ साहब

मुनासिब नहीं है इश्क़ साहब
दिल की बीमारी इश्क़ साहब।

लगा जो ये रोग किसी रोज़ रे
मुलाजिम हो जाये जाँ साहब।

गम और भी है सुनाने को यूं
मगर है यहीं जानलेवा साहब।

तस्वीर सायों की गिरफ्त में है
परेशां है देख बाज़ार साहब।

धोखेबाजों से मिली पाठ वर्मा
जिन्दगी नहीं है इश्क़ साहब।

नितेश वर्मा


Saturday, 19 December 2015

बेपनाह मुहब्बत थीं

बेपनाह मुहब्बत थीं.. बुझायीं भी गयीं.. तो सुलगती रही एक आस में। :)

कुछ मुश्किल नहीं है

कुछ मुश्किल नहीं है
कुछ भी सीख लेना
आदतन सब आसां है
हो जाये जो तुम्हें इश्क़
फिर तुम देख लेना
देख लेना
हवाओं में पंक्षी बनके
समुंदर की बेबाक
लहरों में ढलके
ओढ लेना चादर तुम
इश्क़ के तासीर की
जो याद आयें
एक तस्वीर तुमको
सर्द रातों के कुहासे में
उबलती हुई तुम्हारी
उस गर्म सी चाय में
एक खामोशी से
ढक लेना मुझे तुम
ख्यालों की चाँद पर
या.. बिन तेरे
बिन तेरे फिर होगा
अधूरा
लिखा हुआ मेरा
सबकुछ ये पूरा-पूरा
देख लेना तुम
देख लेना तुम।

नितेश वर्मा और चाय। 🍵

अगर ख्वाब ऊँचे ना होते

अगर ख्वाब ऊँचे ना होते
पंरिदे ये यूं जुदा ना होते।

तुम तुम ना होते बिन मेरे
साँसें ये भी हवा ना होते।

नितेश वर्मा

दिल पहले से ही हल्का भारी था

दिल पहले से ही हल्का भारी था
जैसे खुदपे कहीं एक उधारी था।

कोई लगा है जाके अब रोग मुझे
और बरसों से एक महामारी था।

न है मुझमें मेरी वफादारी तुमसे
यही तो मुझमें एक बीमारी था।

उससे बड़ा कौन है यहाँ यूं वर्मा
वो ही मुझमें एक होशियारी था।

नितेश वर्मा

हर बार वहीं बात

हर बार वहीं बात
वो चली गयी
करके
मुझे बीच मझदार
फिर याद आएगी
जाने कब तक मुझे
एक शिकस्त खाये
खड़े हैं
हम भी बीच बाजार
परेशां मेरे इश्क़ से
ज़माना ये सारा है
मेरे ख्याल से
मेरे ख्याल में
पागल ये मुल्क सारा है
फिर भी जीं रहा हूँ
बगैर बेफिक्र उसके
बोल रही ये हर जुबाँ है
और सुनके ये
रों रहा है मेरा प्यार
अब रहने दो
सुनाऊंगा फिर किसी रोज़
जिन्दगी का ये विस्तार
आज़ खुद से हूँ.. खुद में हूँ
मैं होके बहोत शर्मसार।

नितेश वर्मा

Monday, 14 December 2015

काफिराना निगाहें बाते मतलबी

काफिराना निगाहें बाते मतलबी
वो शक्ल ले गयी हवाये मतलबी।

मुझको भी याद नहीं तेरे बाद ये
वादों के दरम्यां हैं आहें मतलबी।

सवालों में सिमट आती हो तुम
नज़रकैद फिर क्यूं सायें मतलबी।

तुमसे बिछड के सब खुशनुमां हैं
मंज़िल से अलग हैं राहें मतलबी।

नितेश वर्मा

सरफिरी का आलम हैं और हैं वक़्त नहीं

सरफिरी का आलम हैं और हैं वक़्त नहीं
सरफरोश के नाम पर हैं कहीं रक्त नहीं।

जानिब अखबार में मिली थी तस्वीर तेरी
चेहरा दिखा बस जिस्म तेरा समस्त नहीं।

मेरी दुआओं में हर रोज़ तू पुकारा जाऐगा
माँ की हैं जुबाँ ये कोई मौकापरस्त नहीं।

हर गली हर गाँव में साहिब बसते हैं वर्मा
फिर भी मामला दिखा कहीं दुरूस्त नहीं।

नितेश वर्मा

Friday, 11 December 2015

तमाम उलझनों के बाद फिर तुम

तमाम उलझनों के बाद फिर तुम
निगाहें हैं देखकर परेशान
के क्यूं लौट के आयी फिर तुम
तुम्हें जिस्म में कैद करने को
निकले जो अपने कूचे से
हवाओं में नज़र आयी फिर तुम
मुहब्बत ही है दवा, है ये दर्द भी
देखो
सवालों में सिमट आयी फिर तुम
तमाम उलझनों के बाद फिर तुम

नितेश वर्मा और फिर तुम।

मेरी हर शिकायत पर ये ज़िस्म जलाया गया

मेरी हर शिकायत पर ये ज़िस्म जलाया गया
फिर दवा-ओ-मरहम से मुझे फुसलाया गया।

मेरे हर दर्द को किसी तस्वीर ने समेट रखा है
ये आँखें रोंयी जब जिस्म वो दिखलाया गया।

कुछ नेकियों के बाज़ार से गुजर के सीख लिये
ग़म जिंदगी में कभी ऐसे भी मेरे लाया गया।

दुनिया ये भी मुहब्बतों और नफरतों के बीच हैं
दिल जो धडका मेरा नाम तेरा बतलाया गया।

नितेश वर्मा

Wednesday, 9 December 2015

हालांकि ये बयानबाजी होगी

हालांकि ये बयानबाजी होगी
तुम्हारे सामने
के कभी
तुम्हारी तस्वीर तुम्हारे बाद
याद दिलाऐगी तुम्हारी
जब तुम ना होगे सामने
मगर होगे मौजूद कहीं
इन हवाओं, इन फजाओ में
ढूंढ लाऊँगा तुम्हें फिर से
कैद कर लूंगा
उस गिरफ्त में तुम्हें
जहाँ से तुम मेरे
जिस्म में ढल जाओगी
तुम सिमट जाओगी
मेरी बाहों की जरूरतों में
मैं भूल जाऊँगा खुद को
तुममें रखकर कहीं
की
खुद को रखा था कहीं।

नितेश वर्मा

मेरी कोशिशों से पाशिकस्ता परेशां है

मेरी कोशिशों से पाशिकस्ता परेशां है
मैं कुछ लाचार हूँ.. कुछ वो हैरान है
कंकड़ों का हिसाब रस्ते-सफर भर था
हिजाबों में शक्ल, हयां ओढे बेसबर था
गमों का बाज़ार था माहौल गर्म था
क्यूं शख्सियतपरस्ती संस्कृति बनी है
हर बार यही सवाल होती है खुद से
आखिर कब तलक कैद ये जां रहेगी
और दुनिया ये कब तक.. कब तक..
आखिर सबको भूखी मारती रहेगी।

नितेश वर्मा

फरेबी हूँ..

बहोत दिनों से कोई ख़ास नज़्म लिखी नहीं.. कोई शे'र वाह-वाही का कहा नहीं.. और कविता लिखनें के नाम से तुम याद आ जाती हो.. एक तुम्हारें सिवा और क्या कहूँ.., कहूँ तो मतलब फुरसत में हूँ नहीं मैं। वक्त के दायरें में वक्त का चक्कर बना पडा हूँ।
सर्द रात हैं और की-बोर्ड पे मेरी उँगलियाँ तेज़ चल भी नहीं रही हैं जब तक चाय की कप की गर्माहट हथेलियों को बाँधें हुये हैं.. कुछ लिखनें की कोशिश में मैं भी लगा हूँ, तुमसे खफा हूँ या नाराज़ सोच के बताऊँगा.. मग़र अभी तुमसे परे कुछ लिखना चाहता हूँ।
किसी मासूम से छोटे बच्चों को इतनी सर्द में एक लिहाफ ओढें सिगरेट बेचते हुए देखकर तुम्हारा ख्याल कुछ रहा ही नहीं। ना चाहतें हुये भी मैनें उससे एक सिगरेट खरीद लीं, ना तो मैं उसपर कोई दया दिखाना चाहता था और ना ही खुद को बडा बनाना चाहता था, मगर अब तक उस मासूम से बच्चे के चेहरे से खुद को रिहा नहीं करा पा रहा हूँ। वज़ह कोई और हैं या तुम पता नहीं।

हर शक्ल में मैं ही दिखता हूँ
फरेबी हूँ.. फरेबी दिखता हूँ।

नितेश वर्मा और फरेबी

मुझको तो मोहलत कभी मेरे वक़्त ने दी ही नहीं

मुझको तो मोहलत कभी मेरे वक़्त ने दी ही नहीं
मेरी दर्दों को जो कम करे वो मरहम हैं ही नहीं।

बस तकलीफ़ों के दौर से गुजर रहा हूँ मैं वर्मा
कुछ कहें कुछ सुने साथ वो हमदम हैं ही नहीं।

नितेश वर्मा

यूं ही एक ख्याल सा

उसके नहीं आने तक भी खामोशी थीं, लेकिन जब वो कमरे में आयी और फिर हमारी नज़रें एक-दूसरे से टकराई.. फिर घंटों खामोशी बंधी रही। उसकी नाराजगी जब उसमें और मेरी मुझमें सिमट गयीं.. मासूम शक्लें फिर मासूम से शक्लों में तब्दील हो गये.. फिर जाके कमरे से बाहर हम दोनों निकले.. उस शीत के धुंधलके में कहीं बाहर.. कुछ दूर.. एक-दूसरे के हाथों की लम्स को महसूस करते हुए.. चाय पीने को।

नितेश वर्मा और चाय

खामोशी उसकी नजरों की देखिये

खामोशी उसकी नजरों की देखिये
फिर बेहाली इन बदरों की देखिये।

जिन्दगी से गम भी रिहा हुये वर्मा
चालें बदलती ये मुहरों की देखिये।

नितेश वर्मा

Friday, 4 December 2015

For Chennai By Nitesh Verma Poetry

चेन्नई के लोगों (बाढ से पीडित) के लिये कृप्या दुआ के साथ-साथ दवा का भी इंतेज़ाम करें। विनम्र निवेदन हैं।

वो खामोश सी रहनें लगी हैं
जबसे मेरे बगैर रहनें लगी हैं
उसकी आँखें नम ही रहती हैं
और लोग कहते हैं जानें क्यूं
तस्वीर मेरी बिखरनें लगी हैं
मुझे तो ऐतराज़ हैं हर बात से
हर ज़िस्म हर दरों-दीवार से
खुलकें कभी आया नहीं हैं वो
परेशां हैं दिल कलकी रात से
नहीं हैं सब्र अब अब्र बरसते हैं
बात कलकी ही करनी हैं फिर
जां फिर से मुसीबत में हैं वर्मा
दुआ के साथ दवा भी करनी हैं
दुआ के साथ दवा भी करनी हैं।

नितेश वर्मा

Thursday, 3 December 2015

यूं ही एक ख्याल सा ..

फिर से उसके बारे में लिखकर पूरा मिटा दिया, एक बार फिर से। वो कबकी चली गयी.. और मैं नजानें क्यूं ठहरा हूँ उसकी यादों में। कुछ बातें समझ से परे होती हैं.. दिल अगर ये प्यार करना ना सिखाता तो हर दफा मैं परेशान रहता बिलकुल इस दफे की तरह। अब तुम्हारे लिये कोई कसक नहीं.. आज कोई जवाब नहीं.. और ना ही किसी उम्मीद में तुम हो, ..
बस जब कभी कोई ठंडी सी हवा चेहरे से होकर गुजर जाती हैं तुम बेवजह याद आ जाती हो.. खुलीं जुल्फों के संग मुस्कुराते हुये।

नितेश वर्मा

फिर कभी

फिर कभी.. फिर कभी.. कहके मैनें हर वो बात टाल दी
मुहब्बत ये अक्सर मेरी बहानों में सिमट के रह गयी।

नितेश वर्मा और फिर कभी।

Wednesday, 2 December 2015

दो आँखें हर वक़्त पीछे लगीं होती

दो आँखें हर वक़्त पीछे लगीं होती
रोने की भी इजाज़त ना मिलती
और
ना ही कुछ छिपा लेने की
ग़म रिंसता रहता मूसलसल
सदियों की दुआएं.. ये खैरियत
मेरे मौला से की हर शिकायत
रह जाती यहीं पास मेरे
जैसे उसकी गुनाहें
पानी पर लिखी तहरीर हो
और
पढनेंवाला भी हैंरा हो बिलकुल
ये कहनेवाले की तरह
कोई परेशां हैं किसी हैवान के आगे।
नितेश वर्मा

फिर से मिल जाये नज़र तुमसे

फिर से मिल जाये नज़र तुमसे
होश कहीं ये गुम हो जाये
फिर से बात कहीं ठहर जाये
कोई जुबाँ यूं जिस्म हो जाये
शरारतें किताबी आदत हो
जब तुम कभी आ जाओ
गुमनाम कोई नाम मेरा हो
जुबाँ ये मरहम हो जाये
ठहर जाये ये साँस हल्की
जिन्दगी आसमान हो जाये
तुम फिर सब समझ जाओ
तुम फिर से गले लग जाओ
नम आँखें फिर ये खिल जाये
एक दफा फिर से..
फिर से मिल जाये नज़र तुमसे।

नितेश वर्मा