Saturday, 26 December 2015

कारगर नहीं है कुछ भी.. कुछ भी..

कारगर नहीं है कुछ भी.. कुछ भी..
जो नजरों से बयाँ हो कभी
शाम शहर में, दीवानों की भीड़ में
किसी ख्वाहिशों की ओट में
तुम्हारी जिक्रों-ख्यालों में
स्याह की तस्वीर में.. कालिख से
पुते दो संग-ए-मरमर जिस्म की
दास्तान अभी सारी अधूरी सी है
बात रह गयी पास जो पूरी सी थी
बस होके अब ये जाँ अधूरी सी है
कारगर नहीं है कुछ भी.. कुछ भी..

नितेश वर्मा

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