Wednesday, 9 December 2015

यूं ही एक ख्याल सा

उसके नहीं आने तक भी खामोशी थीं, लेकिन जब वो कमरे में आयी और फिर हमारी नज़रें एक-दूसरे से टकराई.. फिर घंटों खामोशी बंधी रही। उसकी नाराजगी जब उसमें और मेरी मुझमें सिमट गयीं.. मासूम शक्लें फिर मासूम से शक्लों में तब्दील हो गये.. फिर जाके कमरे से बाहर हम दोनों निकले.. उस शीत के धुंधलके में कहीं बाहर.. कुछ दूर.. एक-दूसरे के हाथों की लम्स को महसूस करते हुए.. चाय पीने को।

नितेश वर्मा और चाय

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