Wednesday, 9 December 2015

मेरी कोशिशों से पाशिकस्ता परेशां है

मेरी कोशिशों से पाशिकस्ता परेशां है
मैं कुछ लाचार हूँ.. कुछ वो हैरान है
कंकड़ों का हिसाब रस्ते-सफर भर था
हिजाबों में शक्ल, हयां ओढे बेसबर था
गमों का बाज़ार था माहौल गर्म था
क्यूं शख्सियतपरस्ती संस्कृति बनी है
हर बार यही सवाल होती है खुद से
आखिर कब तलक कैद ये जां रहेगी
और दुनिया ये कब तक.. कब तक..
आखिर सबको भूखी मारती रहेगी।

नितेश वर्मा

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