Wednesday, 9 December 2015

फरेबी हूँ..

बहोत दिनों से कोई ख़ास नज़्म लिखी नहीं.. कोई शे'र वाह-वाही का कहा नहीं.. और कविता लिखनें के नाम से तुम याद आ जाती हो.. एक तुम्हारें सिवा और क्या कहूँ.., कहूँ तो मतलब फुरसत में हूँ नहीं मैं। वक्त के दायरें में वक्त का चक्कर बना पडा हूँ।
सर्द रात हैं और की-बोर्ड पे मेरी उँगलियाँ तेज़ चल भी नहीं रही हैं जब तक चाय की कप की गर्माहट हथेलियों को बाँधें हुये हैं.. कुछ लिखनें की कोशिश में मैं भी लगा हूँ, तुमसे खफा हूँ या नाराज़ सोच के बताऊँगा.. मग़र अभी तुमसे परे कुछ लिखना चाहता हूँ।
किसी मासूम से छोटे बच्चों को इतनी सर्द में एक लिहाफ ओढें सिगरेट बेचते हुए देखकर तुम्हारा ख्याल कुछ रहा ही नहीं। ना चाहतें हुये भी मैनें उससे एक सिगरेट खरीद लीं, ना तो मैं उसपर कोई दया दिखाना चाहता था और ना ही खुद को बडा बनाना चाहता था, मगर अब तक उस मासूम से बच्चे के चेहरे से खुद को रिहा नहीं करा पा रहा हूँ। वज़ह कोई और हैं या तुम पता नहीं।

हर शक्ल में मैं ही दिखता हूँ
फरेबी हूँ.. फरेबी दिखता हूँ।

नितेश वर्मा और फरेबी

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