उनमें भी बेचैनी है इस दिल को लेकर
तड़पती है वो जां भी मुझसे दूर होकर।
समाझाया था अहल-ए-दिल को कभी
दिले-मुज़तर रोती है दिले-हर्फ़ छूकर।
आलम आँखों की आँखें ही जाने अब
क्या ढूंढती है वो निगाहों से छूटकर।
तुम तमाम उलझनों में पागल क्यूं हो
परेशान है दिल मेरा तुम्हें यूं देखकर।
अब सँभल जाऐंगे होकर तुम्हारे वर्मा
बड़े बेसब्र थे हयात-ए-कब्र सोचकर।
नितेश वर्मा
तड़पती है वो जां भी मुझसे दूर होकर।
समाझाया था अहल-ए-दिल को कभी
दिले-मुज़तर रोती है दिले-हर्फ़ छूकर।
आलम आँखों की आँखें ही जाने अब
क्या ढूंढती है वो निगाहों से छूटकर।
तुम तमाम उलझनों में पागल क्यूं हो
परेशान है दिल मेरा तुम्हें यूं देखकर।
अब सँभल जाऐंगे होकर तुम्हारे वर्मा
बड़े बेसब्र थे हयात-ए-कब्र सोचकर।
नितेश वर्मा