Sunday, 31 January 2016

उनमें भी बेचैनी है इस दिल को लेकर

उनमें भी बेचैनी है इस दिल को लेकर
तड़पती है वो जां भी मुझसे दूर होकर।

समाझाया था अहल-ए-दिल को कभी
दिले-मुज़तर रोती है दिले-हर्फ़ छूकर।

आलम आँखों की आँखें ही जाने अब
क्या ढूंढती है वो निगाहों से छूटकर।

तुम तमाम उलझनों में पागल क्यूं हो
परेशान है दिल मेरा तुम्हें यूं देखकर।

अब सँभल जाऐंगे होकर तुम्हारे वर्मा
बड़े बेसब्र थे हयात-ए-कब्र सोचकर।

नितेश वर्मा


Saturday, 30 January 2016

सर्दियों की हँसीं शाम होने लगी है

सर्दियों की हँसीं शाम होने लगी है.. बस तुझे देखके कुछ आराम होने लगी है।

नितेश वर्मा और सर्दियों की शाम।

उसे मुझसे तो बस इसी बात की नाराजी रही

उसे मुझसे तो बस इसी बात की नाराजी रही
धड़कने.. धड़कती उसकी मुझमें आधी रही।

नितेश वर्मा

मुझको भी जो यकीन था एक रोज़ आके बिक गया

मुझको भी जो यकीन था एक रोज़ आके बिक गया
सौ खंजर उतरे सीने में फिर आसमां भी दिख गया।

पड़े थे किसी गली की आखिरी मोड़ पर यूंही वर्मा
चंद सिक्के देखे जैसे मुझे भी देके कोई भीख गया।

नितेश वर्मा

कोई कसर गर बाक़ी रह गयी हो तो उसे भी पूरा कर लो

कोई कसर गर बाक़ी रह गयी हो तो उसे भी पूरा कर लो
हम इंसान है हमें मारो-पीटो और अपना जश्न पूरा कर लो।

नितेश वर्मा और इंसान।

कोई हो तो अब बातों का सिलसिला जारी किया जाये

कोई हो तो अब बातों का सिलसिला जारी किया जाये
इश्क के बाज़ार में अब क्या रोज़ वफादारी किया जाये।

मतलब अक्षरों के अब बेमानी से लगने लगे हैं या रब
हर्फों के सीने के अंदर होके अब चारागारी किया जाये।

इन तमाम बे-फिजूली से दूर होकर जो ख्याल आयेगा
ये मुफलिसी भी दूर करने की कोई तैयारी किया जाये।

परिंदे भी दहरो-हरम के खौफ से सायों में कैद है वर्मा
उन्हें भी जीनें का कुछ सुख अता मयारी किया जाये।

नितेश वर्मा और किया जाये।

तुम्हारे इन किताबों को पढकर क्या फ़ायदा

तुम्हारे इन किताबों को पढकर क्या फ़ायदा
इस हर्फ़े-सितारों को समझकर क्या फ़ायदा।

जान भी जायेगी आखिर एक रोज़ इसमें भी
वक़्त इसमें कीमती उलझाकर क्या फ़ायदा।

जितने भी सारे पढ़े मयखाने में वो उतर गये
ऐसी किताब ये सीने पे रखकर क्या फ़ायदा।

ये नम आँखें ताउम्र गुजर गयीं ख्वाहिशों में
अब उम्र ढल के कुछ पाने पर क्या फ़ायदा।

दिल इश्क़ें-दिल्ली, जबान अदबें-लखनऊ
अब सर-ए-मज़हब लगाकर क्या फ़ायदा।

लैला-ए-सुख़न तेरी किताबों में कैद है वर्मा
मग़र तेरे किताबों में उतरकर क्या फ़ायदा।

नितेश वर्मा और क्या फ़ायदा

टूटना बिखरना फिर अल्फ़ाज़ों में ढल जाना

टूटना बिखरना फिर अल्फ़ाज़ों में ढल जाना
इतना भी आसान नहीं दोस्त वर्मा बन जाना।

नितेश वर्मा

कविता जो बहोत पुरानी हो गयीं हैं

कविता जो बहोत पुरानी हो गयीं हैं
एक दफा फिर जुबाँ पे उतर गयीं हैं
गांव की पगडंडियों पर
नहर से होकर खेत तक
आम की क्यारियों से
अचानक जो गुजर गयीं हैं
उस पुराने से खंडहर स्कूल की
मैथस की वो मिस आज भी याद हैं
गर्लस स्कूल की सारी लड़कियां
ज़ेहन पे आकर फिर ठहर गयीं हैं
बात-बहस तो सारी बस
अब ख्यालों की ही रह गयीं हैं
चूल्हे की गर्म सुलगती आंच भी
नाजाने कबकी बुझ गयीं हैं
यादाश्त भी कमज़ोर है मेरी बहोत
बहोत कुछ वो भी भूल गयीं हैं।

नितेश वर्मा

इतना तराशा गया हूँ कि आखिर टूट गया हूँ

इतना तराशा गया हूँ कि आखिर टूट गया हूँ
पत्थर हीरे सा होकर हाथों से मैं छूट गया हूँ।

दरीचे कांच की कब तक रहेगी सलामत यूं
जब मयखाने में ही मैं फ़र्श पर फूट गया हूँ।

शातिर जमाना हुआ करता था मुझसे पहले
अब मैं ही तमाम रियासतों को लूट गया हूँ।

किसी रोज़ जो मिलेंगे तुमको कैद कर लेंगे
अभी बाहों के गिरफ्त से मैं झंझूट गया हूँ।

नितेश वर्मा

क्यूं अल्फ़ाज़ों से दिलें जज्बात उतरते नहीं

क्यूं अल्फ़ाज़ों से दिलें जज्बात उतरते नहीं
इंसानों के भी हालत क्यूं जल्द सुधरते नहीं।

दिल रोंया है रात भर हँसती आँखों के संग
आँखों से भी निकल के ये आहें भरते नहीं।

कैसी अजीब सी जिंदगी अता की है मौला
दो पल भी चैन से क्यूं मुझमें गुजरते नहीं।

कही ये मुस्कान कैद है तमन्नाओं सी वर्मा
जादू ये हवाओं में कोई अब बिखरते नहीं।

नितेश वर्मा और नहीं।

कुछ भी आसान नहीं है इस जमाने में

कुछ भी आसान नहीं है इस जमाने में
दिल सबका परेशान है इस जमाने में
कोई ख्याल कबसे प्यासा है मेरे अंदर
और पाया कोई उड़ान है इस जमाने में

नितेश वर्मा

And the story ends there

And the story ends there
A man is waiting for the lesson
And a man is just trying to
Explain the theme of the story
But the crowd
Distributed the intentions
Of these two people
They throw their golden coins
In the air
In a shameful style
They gave the price value
Of the teller's story
Crowd disappeared minute by minute
Teller's busy in colleting money
A man.. A listener..
Saw the reality of the show
Every story ends with a lesson
Sometimes only a single man
Can noticed that.

Nitesh Verma poetry

कोई रात गुजर गयीं है मुझमें

कोई रात गुजर गयीं है मुझमें
तेरी तस्वीर उतर गयीं है मुझमें
मैं छू के तुझको जिंदा रहूँ
तेरे इशारों से मैं बंधा रहूँ
तेरे लबों पे ठहरा हसीं सा मैं
तेरे मुस्कुराहट से कह दूं कुछ पल
रह जा इनमें अब तू हर पल
हो जायेगी इश्क़ खुद से बयां
बाहों में बाहें जो हो दो पल
ना लौट के आये सुबह मुझमें
कोई रात गुजर गयीं है मुझमें
तेरी तस्वीर उतर गयीं है मुझमें।

नितेश वर्मा

जिस राह पे चलते रात सहर हो गयी है

जिस राह पे चलते रात सहर हो गयी है
धूप जिन्दगी की दीवारें-घर हो गयी है।

ना गम है और ना ही खुशी हुयी कोई
तेरी आरज़ू जैसे मेरी कबर हो गयी है।

मुनाफ़े में इस बार भी रहा मैं या रब
शिकायतें सारी वो बेकदर हो गयी है।

बस दस्तूर लिखा जाए एक बार और
मुंतज़िर साँसें उसकी खबर हो गयी है।

ये लोग बड़े जाहिली कर रहे है वर्मा
सर्द चाँद भी उनकी नज़र हो गयी है।

नितेश वर्मा और हो गयी है।

फिर किसी रोज़ होगी तुमसे बातें इशारों में

फिर किसी रोज़ होगी तुमसे बातें इशारों में
आज ग़ज़ल भी चोरी हो गयी है बाजारों में।

आज फिर दर्द हुआ तो तुम याद आ गयी
मरहम सा जैसे दबा शख्स है तलवारों में।

घुटन सी हो गयी है अचानक इस जहां से
जुबाँ तड़पी है बयां कल होंगी अखबारों में।

आखिर क्या होगा इस अदीबी मुल्क का
वर्मा जहाँ अदीब ही बैठे हो मक्कारों में।

नितेश वर्मा

अब जो आँखों में शर्मिंदगी है तो हैरान क्यूं हो

अब जो आँखों में शर्मिंदगी है तो हैरान क्यूं हो
मुझे यूं होता देख परेशान ख़ुद परेशान क्यूं हो।

बहोत अरसे बाद मिले हो जैसे सुकून के लम्हे
अब आके गले भी लग जाओ यूं बेजान क्यूं हो।

परिंदे ख्यालों में आते है बार-बार तकरार को
समां है सारा उदास तुम मुझमें उड़ान क्यूं हो।

बेचारगी हवा उड़ा के ले गयीं मुझसे सारी वो
मैं पुराना सा घर तुम आखिरी मकान क्यूं हो।

जो उतर जायें तुम्हारी ये ख़ुमारी मुहब्बत की
होगी आजमाइश फिर अब बंधे जुबान क्यूं हो।

जिद आखिर तक मुझमें भी चलती रही वर्मा
सौ शख़्स होकर एक अदद पहचान क्यूं हो।

नितेश वर्मा ओर और क्यूं हो।

कुछेक ख्वाहिशें जो सुबक रही थी

कुछेक ख्वाहिशें जो सुबक रही थी
कहीं मौन एक भीड़ तक रही थी
परिंदे प्यासे सारे जो लौट आये
एक हुंकार आँखों में धधक रही थी
कुछेक ख्वाहिशें जो सुबक रही थी

सवालों के जमघट में जवाबदारी
कम रही जैसे मुर्दों के घर तैयारी
होश गुम से नाजाने क्यूं रहे सारे
जिस्म के ही होते रहे सौ बंटवारे
ना भूख-हड़ताल कम हुयी
ना ही ये सद्र-ए-महफ़िल सुधरी
पहचान अलग सी कर दी हमारी
काट दी गयी जुबाँ जो बक रही थी
जो नयी हवाओं के संग बहक रही थी
कुछेक ख्वाहिशें जो सुबक रही थी

तिरंगे को भी अब भूला दिया गया है
हर दिल कुछ और बसा दिया गया है
खून की होली होती है हर रोज़ यहाँ
अब हर रोज़ दिल्ली जला दिया गया है
विद्रोह के समुंदर खौलते है मुझमें
मायूसी से दो सफे बोलते है मुझमें
एक चिंगारी जो भीषण भडक रही थी
मजरूह है वो आँखें जो दहक रही थी
कुछेक ख्वाहिशें जो सुबक रही थी

क्यूं चारागर बनते है सब मुजाहिर
नहीं करना है मुझे कोई दर्द ज़ाहिर
ना आसमां से यकीं रहा ना जमीं से
भटक गया हूँ मैं होकर जो हमी से
सिर्फ इतना सा गम मरने पर हुआ
जिंदा था तो क्यूं ना करने पर हुआ
साँसें अब सारी मुझमें झक रही थी
जिंदा एक लाश क्यूं महक रही थी
कुछेक ख्वाहिशें जो सुबक रही थी।

नितेश वर्मा

कुछ बरसों पहले की लिखी कविता

कुछ बरसों पहले की लिखी कविता
और बहोत पुरानी सी एक तस्वीर
बदलते धूप में अलसाये से चेहरे
मुख़्तसर सी वो अचानक मुलाकात
इंकलाब लेता हुआ कैद कोई आवाज़
सब आखिर में आकर बिखर गया
कोई फलसफा मुझमें भी ठहर गया
अब जब भी होता हूँ आतुर
खुद को रख देता हूँ मैं सामने
कविता और उस तस्वीर के आमने।

नितेश वर्मा

कुछ है जो मुझको चुभता रहता है

कुछ है जो मुझको चुभता रहता है
दिल तेरा होके भी दुखता रहता है।

मोहब्बत मुझको भी हो गयी है यूं
ख्याल अरमां वो दिखता रहता है।

हर सफे पर तुम ही लिखे गये हो
हर हर्फ़ पे जुबाँ रूकता रहता है।

नाउम्मीद है थोड़े नाराज भी वर्मा
जमाना ये मुझपे थूकता रहता है।

नितेश वर्मा

जभ्भी ख़ामोशी तुममें बढ़ जायेगी

जभ्भी ख़ामोशी तुममें बढ़ जायेगी
एक सवाल ज़ेहन पर चढ़ जायेगी।

तुम हरकतें चाहें खुद लाख करो
बातें फिर भी कहीं बिगड़ जायेगी।

मुख़्तलिफ़ है अरमानों से जहां भी
मगर हर जुबाँ इश्क़ पढ़ जायेगी।

दुआ कुबूल हो भी जाये तो क्या है
बद्दुआ ये सब ख़ाख कर जायेगी।

न रो रोने से आँखें भी भर गई वर्मा
इस अग्न से सर्दियां भी तड़प जायेगी।

नितेश वर्मा

कुछ कहने का भी कोई जरिया हो

कुछ कहने का भी कोई जरिया हो
ये जिस्म आग हो तो दिल दरिया हो।

बारिश बरस जाये जुबाँ प्यासी रही
हाल दिल का जैसे इक बजरिया हो।

तन्हा रही है नज़रें तुमसे मिलके भी
आग में जलता जैसे यूं सावरिया हो।

तुम बस मेरे ही दरीचों के सामने रहो
ख्याल मुझमें बंधा तू वो बावरिया हो।

नहीं है दौर वो सियासत भरी वर्मा
इश्क़ जैसे घर की मेरी अटरिया हो।

नितेश वर्मा

रेंत ग़र दरिया में ही हो तो अच्छा लगता है

रेंत ग़र दरिया में ही हो तो अच्छा लगता है
किसे जलता धूप आँखों में अच्छा लगता है।

वो चाहतें थे मुठ्ठियों में मुझे थामे रहने की
कौन कहें फिसलना किसे अच्छा लगता है।

ठहरना मेरी सफर में लिखा नहीं था कभी
प्यासा तड़पता कहाँ कभी अच्छा लगता है।

चोट दिल की है आँखों से बयां ना होगी ये
ग़ज़ल से कुछ कह पाये ये अच्छा लगता है।

यूं मुनासिब हुए है आज लोग ये सारे वर्मा
जुबाँ कहीं ठहर जाये तो अच्छा लगता है।

नितेश वर्मा

एक समुंदर है इश्क़

एक समुंदर है इश्क़
परिंदे प्यासे है सारे
फेर तमाम नज़रों का है
कैसी बीमारी है इश्क़
हाल हवाओं का भी
बेचैन रहता है बेवजह
हर शक्लों में वो दिखे
बनके वो कोई वजह
ना ही ठहरता है कभी
पत्थर है वो एक झील का
दिल के अंदर दिल है
फिर भी कभी बदतमीज
कुछ सुनता नहीं है इश्क़।

नितेश वर्मा और इश्क़।

यूं ही एक ख्याल सा

सिलसिला आप कहने से जारी हुआ था फिर तुम पर बात बनने लगीं। वक़्त धीरे-धीरे ढलता गया, ढलते वक़्त के साथ तुम-तुम कुछ ज्यादा हुई और बात तू-तू.. मैं-मैं.. तक पहुँच गई। नजदीकियों को शायद कहते है खुद की नज़र लग गयी और फिर दो जवाँ जिस्म अलग हो गए.. बूढ़े से खिसियाते उस दिल को फिर से हवा में उछालते हुए जो फिर एक मकां तलाश रहा था, कुछ दिनों के ऐश के लिये।

ये मुहब्बत अब तो बाज़ार होने लगी है
ऐश करने की अजब द्वार होने लगी है।

सिमट जाऐगा मुख्तसर से लफ्जों में ये
जो दिल से तेरे ये व्यापार होने लगी है।

नितेश वर्मा और ऐश

सूरज की तिलमिलाती किरणें

सूरज की तिलमिलाती किरणें
आँखों को बेचैन कर देती
जब भी तुम्हारी जुल्फें
हवाओं के संग लहराती
तुम्हारे खामोश चेहरे को देख
बेबसी से आँखें झुक जाती
तुम सूरज की उल्टी तरफ होती
रौशनी सारी मुझपर होती
तकलीफ़ भी मुझको ही होती
मगर जब भी तुम आ जाती
मेरे चेहरे के सामने बेख्याली हो
सूरज कहीं डूब जाता तुममें
और ये जिस्म ढल जाता तुममें
याद तो नहीं मगर भूला भी नहीं
धुंधली सी एक तस्वीर तुम्हारी
अभी भी इन आँखों में है।

नितेश वर्मा

असहिष्णुता

भारत सरपट असहिष्णुता की ओर भागा जा रहा है, अभी हाल में ही पठानकोट हमला इस का पुख़्ता गवाह है।

नोट : मुझे यह लिखने के लिये पैसे मिले है, बिक गया हूँ।
नितेश वर्मा

यूं ही एक ख्याल सा..

उसकी सारी नोटबुकों में आगे उसका नाम लिखा होता और पीछे इमरोज़ का। आगे स्टीकर लगीं होती तो पीछे ग़ज़ब की चित्रकारी की होती। इमरोज़ के नाम के ऊपर बड़ी खूबसूरती से मदीहा भी लिखा होता था। जब भी अब कभी मौका मिलता है वो इन सर्दियों में बैठकर उन नोटबुक्स को जला देती है, इमरोज़ अब किसी और पन्ने पर लिखा जाता है, मदीहा अब कहीं और बसती है। शायद वो मुहब्बत थीं, मगर अब दिल ये नहीं मानता। दिल का धुआं अब हवाओं में घुल कर आँखों को तकलीफ़ देती है, अब दिल नहीं आँखें जलती है ज्यादा, बस फर्क यही तक हुआ है और अब उसकी इस हालत पर कोई तरस भी नहीं खाता और ना ही किसी को इस बात की तकलीफ़ है।

नितेश वर्मा

हम उतने ही पुराने

हम उतने ही पुराने
तुम उतने ही मुनासिब
इश्क़ के बाज़ार में
लिये गुलज़ार बनके
गालिब जुबाँ है हाजिर
तुम एक राही सफ़र के
पगड़ंड़ी हम हुए तुम्हारे
एक छांव की तलाश में
जलते रहे कई आस में
प्यासे समुंदर, किनारे मंजिल
भटक रहे है अब भी
दो जानिब दुश्मन हमारे
सुकून ना ठहरें जिस्म पर
आग लगें है
कमबख्त! शहर में सारे।

नितेश वर्मा

कोई भूत सवार है मुझपर

कोई भूत सवार है मुझपर
ये इश्क़ व्यापार है मुझपर।

दाम मिला ना सही मुझको
साँसें भी दुश्वार है मुझपर।

हुस्न तेरा दरिया सा लगे है
दिल जवाँ उधार है मुझपर।

ख्यालातों से दूर चलो तुम
बहुतों की मजार है मुझपर।

इंसाफ़ इंसानों से करो वर्मा
खड़ी सौ तलवार है मुझपर।

नितेश वर्मा और मुझपर।

नितेश वर्मा और 2016

फिर एक नया साल और पुराना मैं। सिलसिला सुनने-सुनाने का, लिखने-लिखाने का, सीखने-सीखाने का चलता रहेगा। मगर कोशिश यह भी रहेगी कि कुछ पुराने पड़े हुए काम को एक नए से अंदाज़ में निपटा दूं, ताकि अगले साल ये खलिश वाली अनुभूति ना हो। फिलिंग्स को पूरा कर लूं या किसी गटर में फल्अश कर दू। यही है इस साल की इयर रेज्यूलेशन अगले साल के आने तक।
मिलन की आस में.. हाय! ये दिसम्बर भी गुजर गयीं प्यास में।

नितेश वर्मा और 2016 की शुभकामनाएँ।

नोट 📝: हैंगओभर उतरेगी तो कुछ साहित्यिक बात भी करेंगे, फिलहाल इंज्वाय किजीए। खुश रहिये। 

ख्वाब सारे उड़ कर धुँआ हो जाये

ख्वाब सारे उड़ कर धुँआ हो जाये
कुबूल होकर मुझमें दुआ हो जाये।

मैं नहीं मानता हंसी उन लफ्जों को
वक़्त बदलते जो बद्दुआ हो जाये।

सिर्फ ये चराग़ मेरे घर जलता रहा
आँधियों को शर्मं से सजा हो जाये।

हर वक़्त जो हुआ करता है वर्मा
ये खेल प्यार अब जुआ हो जाये।

नितेश वर्मा

ये लहू अब भी सीने में उबल बैठता है

ये लहू अब भी सीने में उबल बैठता है
जब भी इंकलाब दिल में ढल बैठता है।
तुम मुसाफिर हो अजनबी शहर के दोस्त
हर बात शब्दों में कहाँ घुल बैठता है।

नितेश वर्मा

Wednesday, 6 January 2016

अब कोई कविता नहीं लिखी जायेगी

अब कोई कविता नहीं लिखी जायेगी
और ना ही दोस्ती का हाथ बढेगा
ना ही पीठ पर छुरें खाऐंगे
और ना ही तिलमिला के चुप हो जायेंगे
अब इंतहां हो गयी है
सिलसिला ये बंद करना होगा
तुम ज़ख़्म करो, हम दवा करे
तुम आँसू दो, हम उन्हें फुसलाते फिरें
तुम बेखौफ मारो
और हम बेवजह सहते फिरें
माँ, बच्चे, बाप, बेटी, बहू्ँ रोते रहे
भाई कांधे पर कांधे देते रहे
नहीं अब नहीं होगा ऐसा
खामोशी टूट जायेगी इस बार
विद्रोह फूट जायेगा इस बार
तुम सोच लो इस बार
अगली बार कुछ और हो जायेगा
ये दर्द, मरहम किसके हिस्से जायेंगे
जवाबदेह बस इसके तुम होगे
बस तुम.. बस तुम.. बस तुम।


नितेश वर्मा