Saturday, 30 January 2016

कुछेक ख्वाहिशें जो सुबक रही थी

कुछेक ख्वाहिशें जो सुबक रही थी
कहीं मौन एक भीड़ तक रही थी
परिंदे प्यासे सारे जो लौट आये
एक हुंकार आँखों में धधक रही थी
कुछेक ख्वाहिशें जो सुबक रही थी

सवालों के जमघट में जवाबदारी
कम रही जैसे मुर्दों के घर तैयारी
होश गुम से नाजाने क्यूं रहे सारे
जिस्म के ही होते रहे सौ बंटवारे
ना भूख-हड़ताल कम हुयी
ना ही ये सद्र-ए-महफ़िल सुधरी
पहचान अलग सी कर दी हमारी
काट दी गयी जुबाँ जो बक रही थी
जो नयी हवाओं के संग बहक रही थी
कुछेक ख्वाहिशें जो सुबक रही थी

तिरंगे को भी अब भूला दिया गया है
हर दिल कुछ और बसा दिया गया है
खून की होली होती है हर रोज़ यहाँ
अब हर रोज़ दिल्ली जला दिया गया है
विद्रोह के समुंदर खौलते है मुझमें
मायूसी से दो सफे बोलते है मुझमें
एक चिंगारी जो भीषण भडक रही थी
मजरूह है वो आँखें जो दहक रही थी
कुछेक ख्वाहिशें जो सुबक रही थी

क्यूं चारागर बनते है सब मुजाहिर
नहीं करना है मुझे कोई दर्द ज़ाहिर
ना आसमां से यकीं रहा ना जमीं से
भटक गया हूँ मैं होकर जो हमी से
सिर्फ इतना सा गम मरने पर हुआ
जिंदा था तो क्यूं ना करने पर हुआ
साँसें अब सारी मुझमें झक रही थी
जिंदा एक लाश क्यूं महक रही थी
कुछेक ख्वाहिशें जो सुबक रही थी।

नितेश वर्मा

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