उसकी सारी नोटबुकों में आगे उसका नाम लिखा होता और पीछे इमरोज़ का। आगे स्टीकर लगीं होती तो पीछे ग़ज़ब की चित्रकारी की होती। इमरोज़ के नाम के ऊपर बड़ी खूबसूरती से मदीहा भी लिखा होता था। जब भी अब कभी मौका मिलता है वो इन सर्दियों में बैठकर उन नोटबुक्स को जला देती है, इमरोज़ अब किसी और पन्ने पर लिखा जाता है, मदीहा अब कहीं और बसती है। शायद वो मुहब्बत थीं, मगर अब दिल ये नहीं मानता। दिल का धुआं अब हवाओं में घुल कर आँखों को तकलीफ़ देती है, अब दिल नहीं आँखें जलती है ज्यादा, बस फर्क यही तक हुआ है और अब उसकी इस हालत पर कोई तरस भी नहीं खाता और ना ही किसी को इस बात की तकलीफ़ है।
नितेश वर्मा
नितेश वर्मा
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