जिस राह पे चलते रात सहर हो गयी है
धूप जिन्दगी की दीवारें-घर हो गयी है।
ना गम है और ना ही खुशी हुयी कोई
तेरी आरज़ू जैसे मेरी कबर हो गयी है।
मुनाफ़े में इस बार भी रहा मैं या रब
शिकायतें सारी वो बेकदर हो गयी है।
बस दस्तूर लिखा जाए एक बार और
मुंतज़िर साँसें उसकी खबर हो गयी है।
ये लोग बड़े जाहिली कर रहे है वर्मा
सर्द चाँद भी उनकी नज़र हो गयी है।
नितेश वर्मा और हो गयी है।
धूप जिन्दगी की दीवारें-घर हो गयी है।
ना गम है और ना ही खुशी हुयी कोई
तेरी आरज़ू जैसे मेरी कबर हो गयी है।
मुनाफ़े में इस बार भी रहा मैं या रब
शिकायतें सारी वो बेकदर हो गयी है।
बस दस्तूर लिखा जाए एक बार और
मुंतज़िर साँसें उसकी खबर हो गयी है।
ये लोग बड़े जाहिली कर रहे है वर्मा
सर्द चाँद भी उनकी नज़र हो गयी है।
नितेश वर्मा और हो गयी है।
No comments:
Post a Comment