ये लहू अब भी सीने में उबल बैठता है
जब भी इंकलाब दिल में ढल बैठता है।
तुम मुसाफिर हो अजनबी शहर के दोस्त
हर बात शब्दों में कहाँ घुल बैठता है।
नितेश वर्मा
जब भी इंकलाब दिल में ढल बैठता है।
तुम मुसाफिर हो अजनबी शहर के दोस्त
हर बात शब्दों में कहाँ घुल बैठता है।
नितेश वर्मा
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