हर एक हुस्न-ए-अदा पे इतराते है वो
मुहब्बत कुछ इस तरह निभाते है वो।
जुल्फों को सुलझाते है फिर बांधते है
हर बार सिलसिला यही दुहराते है वो।
जिस्म-ए-सुकूँ अब मयस्सर नहीं मुझे
निगाहों से क्यूं ये कहकर जाते है वो।
मेरी बातों का उनपर ज़हर हो गया है
मेरी शक्ल ही देखके डर जाते है वो।
दरिया भी इसी आस में था मेरा वर्मा
चाँद सा मुझमें जब उतर जाते है वो।
नितेश वर्मा
मुहब्बत कुछ इस तरह निभाते है वो।
जुल्फों को सुलझाते है फिर बांधते है
हर बार सिलसिला यही दुहराते है वो।
जिस्म-ए-सुकूँ अब मयस्सर नहीं मुझे
निगाहों से क्यूं ये कहकर जाते है वो।
मेरी बातों का उनपर ज़हर हो गया है
मेरी शक्ल ही देखके डर जाते है वो।
दरिया भी इसी आस में था मेरा वर्मा
चाँद सा मुझमें जब उतर जाते है वो।
नितेश वर्मा
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