Saturday, 20 February 2016

अपनी निगाहों से भी शर्मां जाती है वो

अपनी निगाहों से भी शर्मां जाती है वो
निगाहें जभ्भी निगाहों से मिलाती है वो।

ख्वाहिशें आँखों के आसमां पे ठहरें है
चाँद में हर बार क्यूं नज़र आती है वो।

बड़े तन्हा हो चले थे जिन्दगी तेरे साये
अब तो घर से भी खींचके लाती है वो।

क्यूं उसकी मौजूदगी आवारगी लगे है
क्यूं तीर चाके-ज़िगर पे चलाती है वो।

बातें उसकी ही होगी जब भी ये होगी
हालें-दिल यूं ही नहीं कहलाती है वो।

तुमहीं मुकम्मल तुमहीं शहरयार वर्मा
फिर क्यूं मदहोशे जाम पिलाती है वो।

नितेश वर्मा और वो।


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