Monday, 28 March 2016

इन इबादतों में तेरा जिक्र क्या

इन इबादतों में तेरा जिक्र क्या
ये अब्र क्या है ये हवा क्या
मुहब्बत की गुस्ताख़ किताब
ये हर्फ़ क्या है ये मिज़ाज क्या
कोई जलती चिंगारी थी मुझमें
बारिश के बाद हुआ हश्र क्या
दामन जिसका छूटता ही नहीं
वो ना मिला तो फिर गिला क्या
सहमीं सी निगाहों का कुसूर है
वर्ना ये दर्द क्या है ये दवा क्या
इन इबादतों में तेरा जिक्र क्या
ये अब्र क्या है ये हवा क्या।

नितेश वर्मा

इस उधार की ज़िन्दगी में

इस उधार की ज़िन्दगी में
उदासी सूद की तरह है
मुहब्बत ग़ायब है
तन्हाई
बस इक वज़ूद की तरह है
दरीचों के दरम्यान दो दिल
इस कदर उल्झे है
किसी गणित की किताब में
जैसे मुहब्बतों के अल्फ़ाज।

नितेश वर्मा और अल्फ़ाज।

किसी बेहद संजीदा किताब की

किसी बेहद संजीदा किताब की
आखिरी कोरे पन्ने की तरह हो तुम
कई दफा जिनपर ये उंगलियाँ जाकर
कोई हसीन सी कहानी लिखती है
कभी खुद को उतार देती है उसपर
किसी रोज़ सुर्ख लबों से लगा लेती है
थोड़ा सा सबसे छिपाकर एक नाम
लिखने की बेइंतहा कोशिश होती है
फिर उस खामोश संजीदगी से
ऐसी डर होती है की ये उंगलियाँ
ऐसे सहम जाती है, रूक जाती है
की उनपर सरीर करने की भी
कोई हिम्मत नहीं होती.. ना ही
उनको खामोश तकते रहने की
फिर वो किताब बंद कर दी जाती है
उसी संजीदगी से जो बार-बार के
यादों पर भी कभी नहीं खोली जाती।

नितेश वर्मा

उसे जमाने का डर है इश्क़ निभाने में

उसे जमाने का डर है इश्क़ निभाने में
यहाँ हर रोज़ जाँ जाती है समझाने में।

उसको भी फिक्र है थोड़ी सी मेरी भी
ठीक 7 बजे फोन करती है मनाने में।

गाँव के लडके भी अब ढीठ हो गये है
मुश्किल है घर से यूं निकल आने में।

हर रोज़ कमरे की तलाशी चलती है
ना भेजो चिठ्ठियाँ तंग हूँ मैं छिपाने में।

तुम शहर से लौटकर अब आ जाओ
नहीं डरती मैं तुम्हें यूं अपना बताने में।

नितेश वर्मा

किसी बारिश के बाद जो धूप खिली थी

किसी बारिश के बाद जो धूप खिली थी
वो आ गई थी अपने दीवार से लगकर
मुझको महसूस करने को
मेरी उंगलियों से जो हल्की सी
उसकी नर्म उंगलियाँ लग गई थी
इस ओर से मैं पागल हुआ जा रहा था
और उस ओर से वो शरमाई जा रही थी
कुछ देर खामोशी में मुहब्बत गुजरी
फिर.. ढलती शाम की..
अज़ान ने हमपे एक नक़ाब रख दिया।

नितेश वर्मा

किसी को पा लेना ही मुहब्बत नहीं है

किसी को पा लेना ही मुहब्बत नहीं है
किसी के लिए कभी तडपकर देखिए।

नितेश वर्मा

हैप्पी होली

अभी पिछले बरस की गुलाल उतरीं ही नहीं थी.. रंग जो चढा था वो अभी भी ठीक से निकल नहीं पाया था- कि फिर ये होली आ गई। फिर से किसी की जिद थी चूनरी भिंगोने की, इन गालों को छू लेने की, बंधी इन जुल्फों को खोल देने की, इन नर्म उंगलियों को थाम लेने की, मेरे बचती-बचाती नज़रों में खुद को कहीं देख लेने की।
मगर अब मैं नहीं चाहती भींगना और ना ही किसी के रंग में रंगना चाहती हूँ। मैं अब उगता गईं हूँ हर बार की इस हैप्पी होली से। किसी की जाम में नहीं उतरना चाहती, पर्दे के पीछे से कुछ नहीं छांकना चाहती। अब मैं नहीं चाहती कोई भी हैप्पी होली, जो मुझमें मनाई जाएं.. मेरी नामंजूरी के बावजूद भी। ख़ैर आपको हैप्पी होली हर दफा की तरह इस बार भी बिना किसी गुलाल के.. बस एक खामोश मुस्कान से। 😊

नितेश वर्मा और हैप्पी होली।

हमसायों से ही है अब परेशान बहोत

हमसायों से ही है अब परेशान बहोत
कल तलक थी इनमें मेरी जान बहोत।

परिंदे को गुमान है ऊँची दरख़्तों पर
आज लेके आये है वो मेहमान बहोत।

यूं अँधेरे से मकाँ में मयस्सर है ख़ुदा
रोशनी में आके मैं हुआ हैरान बहोत।

मंजूरी महंगी पड़ गयीं इस कदर के
कोतवाली में चोर हुए पहचान बहोत।

ग़र्द दिल की जिस्म पे उतर गई वर्मा
निकल आये अपने ही शैतान बहोत।

नितेश वर्मा और बहोत।

हर ज़ख्म पे आह होगी और हर दर्द पे जाँ निकलेगी

हर ज़ख्म पे आह होगी और हर दर्द पे जाँ निकलेगी
जब भी ज़ुबाँ पत्थर खायेगी हर हर्फ़ से माँ निकलेगी।

नितेश वर्मा और माँ।

यूं खून मुझमें भी जवानी लिये बहोत है

यूं खून मुझमें भी जवानी लिये बहोत है
असरदार नहीं है गुमानी लिये बहोत है।

कहने को तो यूं कोई बात नहीं है मुझमें
मगर ख्याल ये तेरा मानी लिये बहोत है।

सुना दूं हर किसी के जिक्र पे तुम्हें मैं भी
मगर कुछ बात भी खामोशी लिये बहोत है।

ये इतिहास गवाही देगी किताबें झांककर
किताबों में किताबें मनाही लिये बहोत है।

अब तो नजरों से गिरकर ना उठिए वर्मा
शर्म भी आपकी यूं बेमानी लिये बहोत है।

नितेश वर्मा

अभी आप किसी बेनाम सी मुहब्बत में उलझे है

अभी आप किसी बेनाम सी मुहब्बत में उलझे है
कभी दुरूस्त होके मिलिए फिर तमाम बातें होगी।

नितेश वर्मा

Wednesday, 16 March 2016

अब शायद ना मिले हम

अब शायद ना मिले हम
वक़्त अब मुसाफिर ना हो
तुमसे ये फ़ालतू बातें ना बने
इंतजार बेहिसाब अब ना हो
तुम्हारी मशगूलियत
बेशक आडे आ जाए
मुख़्तसर मुलाकात अब ना हो
मुख़्तलिफ़ हालात हमारे हो
ख़्वाहिशात अधूरे सारे हो
तुम फिर से तुम ना बनो
हम भी पीछे तुम्हारे ना हो
दूरियों के दरम्यान साँसें हो
उठ-उठकर रातें बातें ना हो
कैडबरी, कोल्ड-ड्रिंक्स, चाय
तमाम एहसासात बेगारी हो
एक अलग दुनिया के तुम राजा
एक शहर के शायद
अलग बादशाहत हमारी हो
बदले इस वक्त तमाम तारे हो
चाँद बस आँगन हमारे ना हो
अब शायद ना मिले हम
वक़्त अब मुसाफिर ना हो।

नितेश वर्मा और अब शायद।

जभ्भी कभी मुस्कुराइये आप

जभ्भी कभी मुस्कुराइये आप
किसी अंजामात आइये आप।

दिल भी ये तोड़ दीजिये चाहें
मुँह ना मुझसे मोड़िए आप।

घुटन तो नहीं होगी न जीने में
चंद साँसें रोक लिजीए आप।

क्या मज़ाक है ज़िन्दगी मेरी
जाँ अब तो ये छोड़िये आप।

गर्मी में पसीना होगा ही वर्मा
चाहे लाख सर फोड़िये आप।

नितेश वर्मा और आप।

Sunday, 13 March 2016

आशिक़ मैं इकरार तू

आशिक़ मैं इकरार तू
मेरा है घर बार तू
जाँ से बढके चाहूँ मैं
जाँ का है मेरा प्यार तू
शीशे का इक जार तू
दो दिल एक हथियार तू
हाथ में है हाथ जो तेरा
इश्क़ का जैसे कतार तू
आ लग जा गले एक बार तू
प्यार से फिर एक बार तू
आशिक़ मैं इकरार तू
मेरा है घर बार तू
जाँ से बढके चाहूँ मैं
जाँ का है मेरा प्यार तू।

नितेश वर्मा और तू।

मुल्क की हालात आपसे छुपी नहीं

मुल्क की हालात आपसे छुपी नहीं
गरीबों की बस्ती भी अब रही नहीं।

फिर से घरौंदे जंगल में बनाने होंगे
इंसा इस जमाने में अब कहीं नहीं।

टूटकर चाहिये जिसको भी चाहिये
इश्क़ निभाइये आप मजहबी नहीं।

नहीं कोई शिकायत दर्ज होगी अब
इल्जामें-कत्ल भी है वो खूनी नहीं।

जला दीजिये मकाँ सारी रातों-रात
पैसों की कमी आपको है ही नहीं।

एक-एक कतरा खून रो रहा वर्मा
इंसाफ़ की गुहार उसने सुनी नहीं।

नितेश वर्मा

किसी भी तरीके से उनको मेरे साथ रहने तो दो

किसी भी तरीके से उनको मेरे साथ रहने तो दो
वो याद फिर गुजर जायेगी बारिश ठहरने तो दो।

मुलाकात मोहब्बत के रास्ते से मुकम्मल हुई है
इंकार भी हो सकती है यूं इकरार करने तो दो।

सामने समुंदर है पीछे वादियों भरा हसीन समां
जानते है बिछड़ जायेंगे मगर संग चलने तो दो।

किससे शिकायतें बैठकर मैं करने लगा हूँ वर्मा
कल तक जो कह रहा था के मुझे सुधरने तो दो।

नितेश वर्मा

किसी की याद में जब आप कहानी लिखिये

किसी की याद में जब आप कहानी लिखिये
मुहब्बत भूल जाइये केवल बेईमानी लिखिये।

पत्थर उठाकर अपने घर पे ही चला दीजिये
फिर बिखरें हुए शीशे पे हिन्दुस्तानी लिखिये।

अज़ब माहौल से गुजर रहें हैं जुबाँ बेहूदी है
अब मेरी मानिये दुश्मनी खानदानी लिखिये।

दो वक़्त की रोटी नसीब नहीं नसीबदारों को
अच्छे दिनों के बारे में आप भी जानी लिखिये।

साहिबे-मसनद है आपके शहर में हम वर्मा
ग़ज़ल कोई भी आप यूं ज़ुबानदानी लिखिये।

नितेश वर्मा

मेरा तो अपना कोई था नहीं

मेरा तो अपना कोई था नहीं
इसलिए दूर तुमसे हुआ नहीं।

मुझको तो अब रोना आता है
माँगी थी दुआ बद्दुआ नहीं।

यूं गाँव से शहर तक आ गये
उससा हसीं कोई मिला नहीं।

कमरों की तन्हाई पसर गयीं
फिर भी मयस्सर निशाँ नहीं।

गंगा-हरिद्वार-काशी नहाये
रोग था ऐसा जो छूटा नहीं।

ज़बानदानी में उलझे रहे हम
कामिल शे'र कोई बना नहीं।

मौहलत कम थी जिंदगी की
मौत ने पकड़ा तो छोड़ा नहीं।

किससे जाकर माँगूँ हक़ मैं
जब मेरा है कोई ख़ुदा नहीं।

पैर भी सुन्न रहता है सिर सा
ख्याली बाज़ार जाँ लगा नहीं।

मैं अलग हूँ शहर में भी यारा
तेरे सिवा यूं कोई जँचा नहीं।

पत्थर निशानें पे जाकर लगीं
करी जिसकी उसने पूजा नहीं।

भीख भी जात पूछकर देते है
खाया उनका मगर मज़ा नहीं।

माँ की अक़ीदत में गुजर गया
मगर इसको कहीं लिखा नहीं।

आँखों से फिर गिर गये आँसू
दर्द कैसा जो हुआ बयां नहीं।

मैं इश्क़ में बिखर गया वर्मा
हुनर मुझको यही अता नहीं।

नितेश वर्मा और नहीं।

मैं नज़्म लिखता हूँ

मैं नज़्म लिखता हूँ
कि छुपा सकूँ कुछ दर्द
जो सीने में खौलता है
बता सकूँ वो ज़ख़्म
मैं ज़बान बेचता हूँ
ताकि हर बात पे मर सकूँ
मैं मकान देखता हूँ
ताकि सफ़र से लौट सकूँ
मैं ज्यादा हिसाबी हूँ
वक़्त के आडे हिजाबी हूँ
मैं टूट जाता हूँ खुद में
फिर खो देता हूँ खुदको
मसलन-ब-मसलन
हर बार ये मसला उठता है
आग घर से और धुँआ
आसमान से निकलता है
क्यूं होता है हर मर्तबा ऐसा
शायद इसलिए कि मैं
कुछ ना कुछ लिखता रहूँ
अपनी नहीं तो ना सही
सामाजी बातें पढ़ता रहूँ
मैं नज़्म लिखता हूँ
कि छुपा सकूँ कुछ दर्द
जो सीने में खौलता है
बता सकूँ वो ज़ख़्म।

नितेश वर्मा

Monday, 7 March 2016

ऊँ नम: शिवरूद्राय

ऊँ नम: शिवरूद्राय
ऊँ नम: नीलकंठाय
ऊँ नम: महाकालाय
ऊँ नम: शिव शिव शम्भो
ऊँ नम: कैलाशाय
ऊँ नम: निरंजनाय
ऊँ नम: त्रिनेत्राय
ऊँ नम: शिव शिव शम्भो

यत्र-तत्र सर्वत्र महिमाधारी शम्भो
ग्रह नक्षत्र सर्पधारी शम्भो
अस्मिन् मने निवासिते शम्भो
पत्र-पत्र बेलपत्र दुखहारी शम्भो
ऊँ नम: शिव शिव शम्भो
ऊँ नम: शिवरूद्राय
ऊँ नम: नीलकंठाय
ऊँ नम: महाकालाय
ऊँ नम: शिव शिव शम्भो।

नितेश वर्मा

रात भर चिराग़ जलाते रहे

रात भर चिराग़ जलाते रहे
आँधियों से दिल लगाते रहे
घर जो मेरा रोशन ना हुआ
शहर को दीया दिखाते रहे।

नितेश वर्मा