Monday, 28 March 2016

किसी बेहद संजीदा किताब की

किसी बेहद संजीदा किताब की
आखिरी कोरे पन्ने की तरह हो तुम
कई दफा जिनपर ये उंगलियाँ जाकर
कोई हसीन सी कहानी लिखती है
कभी खुद को उतार देती है उसपर
किसी रोज़ सुर्ख लबों से लगा लेती है
थोड़ा सा सबसे छिपाकर एक नाम
लिखने की बेइंतहा कोशिश होती है
फिर उस खामोश संजीदगी से
ऐसी डर होती है की ये उंगलियाँ
ऐसे सहम जाती है, रूक जाती है
की उनपर सरीर करने की भी
कोई हिम्मत नहीं होती.. ना ही
उनको खामोश तकते रहने की
फिर वो किताब बंद कर दी जाती है
उसी संजीदगी से जो बार-बार के
यादों पर भी कभी नहीं खोली जाती।

नितेश वर्मा

No comments:

Post a Comment