मैं नज़्म लिखता हूँ
कि छुपा सकूँ कुछ दर्द
जो सीने में खौलता है
बता सकूँ वो ज़ख़्म
मैं ज़बान बेचता हूँ
ताकि हर बात पे मर सकूँ
मैं मकान देखता हूँ
ताकि सफ़र से लौट सकूँ
मैं ज्यादा हिसाबी हूँ
वक़्त के आडे हिजाबी हूँ
मैं टूट जाता हूँ खुद में
फिर खो देता हूँ खुदको
मसलन-ब-मसलन
हर बार ये मसला उठता है
आग घर से और धुँआ
आसमान से निकलता है
क्यूं होता है हर मर्तबा ऐसा
शायद इसलिए कि मैं
कुछ ना कुछ लिखता रहूँ
अपनी नहीं तो ना सही
सामाजी बातें पढ़ता रहूँ
मैं नज़्म लिखता हूँ
कि छुपा सकूँ कुछ दर्द
जो सीने में खौलता है
बता सकूँ वो ज़ख़्म।
नितेश वर्मा
कि छुपा सकूँ कुछ दर्द
जो सीने में खौलता है
बता सकूँ वो ज़ख़्म
मैं ज़बान बेचता हूँ
ताकि हर बात पे मर सकूँ
मैं मकान देखता हूँ
ताकि सफ़र से लौट सकूँ
मैं ज्यादा हिसाबी हूँ
वक़्त के आडे हिजाबी हूँ
मैं टूट जाता हूँ खुद में
फिर खो देता हूँ खुदको
मसलन-ब-मसलन
हर बार ये मसला उठता है
आग घर से और धुँआ
आसमान से निकलता है
क्यूं होता है हर मर्तबा ऐसा
शायद इसलिए कि मैं
कुछ ना कुछ लिखता रहूँ
अपनी नहीं तो ना सही
सामाजी बातें पढ़ता रहूँ
मैं नज़्म लिखता हूँ
कि छुपा सकूँ कुछ दर्द
जो सीने में खौलता है
बता सकूँ वो ज़ख़्म।
नितेश वर्मा
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